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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २०६
उदर भरण के कारणे रे गौवां वन में जाय । चार चरें चिहुँ दिस फिरें, वाकी सुरति बछरुश्रा मांहि रे ।। जिन० ।। १ ।।
सात पाँच सहेलियाँ रे, हिलमिल पाणी जाय । ताली दिये खड खड हँसे रे, वाकी रति गगरुप्रा मांहि रे ।। जिन० ।। २ ।।
नटुमा नाचे चौक में रे, लाख करे लख सोर । बाँस गृही बरते चढ़ें, वाको चित्त न चले कहूँ ठोर रे ।। जिन० ।। ३ ।।
जूनारी मन में आनन्दघन प्रभू यूं
जुम्रा रे, कामी के मन है, इम त्यो भगवत
काम ।
रे ।।
जिन० ||
नाम
४ ॥
( इस पद की भाषा-शैली भिन्न होने से यह शंकास्पद है )
विशेष - प्रथम तीन पद्यांशों में पहले पद्यांश में प्राहार प्राप्त करने हेतु जाने वाली गायों का वर्णन है । दूसरे पद्यांश में पानी लाने वाली विनोदी स्त्रियों का वर्णन है और तीसरे पद्यांश में उदरपूर्ति हेतु लोक रंजन का धन्धा करने वाले नटों का दृष्टान्त है । इन तीनों पद्यांशों का आशय यही है कि चाहे अपनी रोजी के लिए उद्यम करते हों, चाहे मित्र मण्डली में विनोद करते हों, चाहे पेट - पालन हेतु लोगों के मन-रंजन का कार्य करते हों तो भी किसी भी अवस्था में हमें अपने आत्मा को नहीं भूलना चाहिए सदा आत्म जागृति रखनी चाहिए । उक्त तीनों कार्य करने वाले जिस प्रकार अपने मूल कार्य को नहीं भूलते, उसी प्रकार हमें भी श्री जिनेश्वर भगवान का दत्तचित्त होकर स्मरण करना चाहिए । सांसारिक व्यावहारिक कार्य करते हुए भी चित्त प्रभु में रखें ।
अर्थ - हे मन ! जिनेश्वर भगवान के चरणों में चित्त को इस प्रकार लगा, आत्म-शत्रुओं के नाशक अरिहन्त भगवान के गुरंगों का इस प्रकार स्मरण कर, जिस प्रकार गायें अपनी उदर-पूर्ति करने के लिए जंगल में