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श्री आनन्दघन पदावली-२०५
अर्थ -हे चेवन ! उस ओर ज्ञानावरण आदि पाठ कर्म प्रकृति से उत्पन्न भ्रम रूप विषैली बेल छाई हुई है, जिसने आपको चारों ओर से घेरा हुआ है और इधर समता, श्रद्धा आदि परम कोमल वृत्तियाँ आपके रंग में रंगी हुई हैं ।।३।।
विवेचन-चेतना कहती है कि हे प्राणनाथ ! माया की ओर कर्मभ्रान्ति रूप विष-वल्लरी का साथ है। अत: यदि सांसारिक मोह-माया की ओर प्रवृत्ति करेंगे तो ज्ञानावरणीय आदि अनेक कर्म ग्रहण करेंगे। कर्म रूप विष-बेल के अशुभ फलों का प्रास्वादन करके आप महा दुःख के भोक्ता बनेंगे। समता कहती है कि यदि आप मेरी अोर आयेंगे तो उत्तम निर्मल मति के मेले के रंग में रंगेंगे और सहज निर्मल आत्मिक सुख प्राप्त कर सकेंगे। मेरी ओर आने से आपकी बुद्धि निर्मल होगी और आप अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप को प्राप्त कर सकेंगे। अतः हे आत्मस्वामिन् ! आप उस ओरं गमन न करके अपने मूल घर की ओर आइये ।
अर्थ--उस ओर काम, कपट, मद, मोह और मान हैं और इस ओर आत्मानुभव रूप अमृत का पान है ।।४॥
विवेचन-समता कहती है कि हे आत्म-स्वामिन् ! आप संसार की ओर प्रयाण न करें। उधर काम नामक महा लुटेरा निवास करता है । वह प्राणियों को विषय-वासना की लालच में सुख की भ्रान्ति दिखाकर ठगता है। हे स्वामिन् ! यदि आप संसार-मार्ग की ओर प्रयाण करोगे तो काम-वेग में फँस जानोगे और दुःखी होनोगे। उस ओर. कपट का अत्यन्त बल है। उधर आठ प्रकार का अंहकार भी आपको कष्ट देगा। अतः आप मोह एवं मान के फन्दे में फंसने के लिए उधर न जायें ।
. अर्थ -समता कहती है कि उधर अनन्त दुःख हैं और इधर आनन्द के समूह भगवान वसन्तोत्सव खेलते हैं ।।५।।
विवेचन - श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि संसार के मार्ग में तो अनन्त दुःख हैं और मुक्ति-मार्ग की ओर सदा वसन्त ऋतु है, जिसके द्वारा आनन्द प्राप्त होता है। अत: हे आत्मन् ! आप इस ओर आयें।
(राग-लियो बेलावल) जिनचरण चित्त ल्याउं रे मना । अरहंत के गुण गाऊँ रे मना ।। जिन० ।।