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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२०४
उत माया काया कवण जात । उह जड़ तुम चेतन जग-विख्यात ।। २ ।। . उत करम भरम विष बेल संग । इत परम नरम मति मेलि रंग ।। ३ ।। उत काम कपट मद मोह मान । इत केवल अनुभव अमृत पान ।। ४ ।।। अलि कहे समता उत दुःख अनन्त ।
इत खेले प्रानन्दघन वसन्त ।। ५ ।। (विशेष-इस पद की शैली अन्य पदों से भिन्न है, अतः शंका उत्पन्न होती है)
अर्थ-- समता कहती है कि हे प्राणनाथ, मेरे चेतन देव ! किस ओर जाने का विचार है ? आप कृपया इस ओर आकर देखो तो सही। यहाँ अपने घर वालों आर्जव, मार्दव, सैत्य आदि का साथ है ।।१।।
विवेचन हे प्राणनाथ ! आत्म-स्वामिन् ! आप सांसारिक मार्ग की ओर प्रयाण करने की अभिलाषा क्यों कर रहे हैं ? सांसारिक मार्ग अनेक संकटों से परिपूर्ण है। संसार के मार्ग में जीव ने कदापि सुख प्राप्त नहीं किया। क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, क्लेश, हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, कीर्ति, परिग्रह, विषय-बुद्धि, निन्दा तथा मिथ्यात्व आदि संसार के मार्ग हैं। मनोदण्ड, वंचन-दण्ड, काय-दण्ड, आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान और कृष्ण आदि अशुभ लेश्या संसार के मार्ग हैं। आप अशुद्ध परिणति के मार्ग का त्याग करके शुद्ध धर्म रूप अपने घर में आकर हे चेतन ! अपने परिवार को देखो।
__ अर्थ -- उधर छद्मवेशधारिणी माया एवं काया की क्या जाति है? अरे, वे तो जड़ हैं और आप विश्व-विख्यात चेतनरांज हैं। आप अपने चेतन भाव को क्यों भूल रहे हो ? ।।२।।
विवेचन -- समता कहती है कि हे चेतन स्वामी ! आप माया की ओर जा रहे हैं, परन्तु वह उत्तम जाति की स्त्री नहीं है । अतः माया रूपी नीच जाति की स्त्री की आपको संगति नहीं करनी चाहिए। पौद्गलिक वस्तुओं में तनिक भी सुख नहीं है। चेतन को जड़ की संगति करना उचित नहीं है।