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श्री प्रानन्दघन पदावली-२०३
दो पादों से गमन करूंगी। इन छरी को अन्तर में धारण करके आपको प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्प करती हूँ।
अर्थ -- उधर शठ (धूर्त), ठग, माया, मान और दम्भ भरे हुए हैं और इधर सरलता, मृदुता विनय रूप अपना परिवार है ।।३।।
विवेचन-जहाँ ममता तथा कुमति होती है वहाँ शठता, छल तथा अहंकार का प्रवेश होता है और सुमति के पास सरलता, मृदुता, निर्लोभता आदि परिवार का मिलाप होगा जिससे आपको स्वभाव से ही सहजानन्द की खुमारी का लाभ प्राप्त होगा। इस प्रकार सुमति दोनों ओर का सच्चा स्वरूप प्रकट करके बताती है।
अर्थ-उधर ममता की ओर आशा, वासना, तृष्णा, लोभ और क्रोध हैं। इधर शान्ति, इन्द्रिय-जय, सन्तोष सुशोभित हैं ॥४॥
विवेचनहे स्वामिन् ! वहाँ ममता के मित्र प्राशा, तृष्णा, लोभ, और क्रोध हैं। तृष्णा से किसी जीव को शान्ति प्राप्त नहीं होती। लोभी मनुष्य आँखें होते हुए भी अंधा होता है। यहाँ तो सुमति के पास तो शान्त, दान्त एवं सन्तोष गुण की शोभा है। संसार में सन्तोष के समान कोई सुख नहीं है। -
अर्थ-उधर ममता की ओर कलंकी पाप की कला व्याप्त है और इधर स्वयं आनन्द स्वरूप चेतनराज का क्रीडाङ्गण है, जहाँ चेतनराज क्रीड़ा करते हैं ॥५॥
विवेचन-सुमति कहती है कि मेरे यहाँ तो शान्त, दान्त एवं सन्तोष आदि परिवार है और. कलंकित पाप का स्थान ममता है। अशुभ प्रास्रव का मूल ममता है। सुमति कहती है कि ममता के घर की ऐसी दशा है और हे चेतनराज ! मेरे घर में तो आनन्दघन, तीन लोक के भूप आप बैठ सकते हैं। ममता के घर नीच दुष्टों का वास है। सुमति की बातें सुनकर चेतन के अन्तर में विवेक जाग्रत हुआ और उनका सुमति के घर में पदार्पण हुआ और वे सहज सुख में क्रीड़ा करने लगे।
(३)
( राग-वसन्त ) कित जाण मते हो प्राणनाथ । इत पाई निहारोने घर को साथ ।। १ ॥