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श्री आनन्दघन पदावली-२०६
___ इस चेतन में सत्-असत्, अस्ति-नास्ति दोनों धर्म हैं। स्व द्रव्य को अपेक्षा इसमें अस्ति धर्म है, पर द्रव्य की अपेक्षा नास्ति धर्म है । आत्मा अपने ज्ञानादि गुण, मनुष्यादि पर्याय-इन गुण-पर्याय की परिणति, क्षायिक भाव तथा निज चेतन स्वभाव की गति से चेतन सत् है एवं जड़ धर्म की अपेक्षा असत् है, अर्थात् जड़ पदार्थ के गुण, वर्ण-गन्ध-रसस्पर्श-चेतन में नहीं हैं ।।१।।
विवेचन ---योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी कहते हैं कि आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुण आत्मा की अपेक्षा से सत् हैं, परन्तु पर द्रव्य की अपेक्षा से प्रात्म-द्रव्य एवं आत्मा के गुण असत् हैं। आत्मा के गुण एवं पर्याय ही आत्मा की परिणति हैं। हे अात्मन् ! तुझे अपनी शुद्ध परिणति में रमण करना चाहिए। उपशम भाव, क्षयोपशम भाव और क्षायिक भाव उत्तरोत्तर शुद्ध भाव कहलाते हैं। यदि आत्मा अपने उपशम आदि भाव से रमण करे तो शुभ गति प्राप्त कर सकता है। देवलोक एवं मनुष्यभव दो शुभ गतियाँ हैं। तीसरी पंचम गति को क्षायिक भाव से प्राप्त करता है।
अर्थ स्व एवं पर वस्तु का स्वरूप एवं सत्ता एक ही सिद्ध नहीं होती, ये भिन्न-भिन्न हैं, दो हैं। अर्थात् चेतन की स्वसत्ता चेतन रूप है तथा जड़ की सत्ता जड़ रूप है। यह जड़ भाव एवं चेतन भाव दोनों एक वस्तु में सिद्ध नहीं होते। यह सिद्धान्त पक्ष है कि चेतन एक अखण्ड एवं अबाधित सत्ता है ॥२॥ _ विवेचन मुक्ति प्राप्त करने पर एक चेतन ही शुद्ध रहता है । चेतन की एक अबाधित अखण्ड सत्ता है। तीन काल में चेतन अपनी सत्ता छोड़ता नहीं, यह सिद्धान्त पक्ष से कहा जाता है। __. 'अर्थ उस चैतन्य सत्ता को अन्वय एवं व्यतिरेक हेतु से समझकर स्वरूप सम्बन्धी सम्पूर्ण भ्रम मिटा देना चाहिए। मानसिक, वाचिक और कायिक धर्म भिन्न हैं। ये आत्मा के धर्म नहीं हैं। इन समस्त आरोपित धर्मों को भिन्न समझ कर आनन्द के समूह रूप ज्ञान-दर्शन स्वरूप आत्मा को जानना चाहिए। यही तत्त्व रूप परम सत्य है। इस चेतन शक्ति की. पूर्णता प्राप्त करना ही सर्वव्यापक होना है ॥३॥
विवेचन-अन्वय एवं व्यतिरेक हेतु से प्रात्मा का स्वरूप समझते पर वस्तुओं से आत्मत्व का भ्रम मिट जाता है। योगिराज श्रीमद्
प्रानन्दघनजी कहते हैं कि आत्मा ही स्वतत्त्व है, वही आनन्द का घन है, . और वही पाराध्य है।