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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २१०
( ६ )
( राग - वसन्त )
प्यारे, अब जागो परम गुरु परम देव । मेटहु हम तुम बीच भेद ।। आली लाज निगारो गमारी जात । मोहि प्रान मनावत विविध भाँति ।। प्यारे० ।। १ ।।
प्राली पेर निमूली चूनडी कानि ।
मोहि तोहि मिलन विच देत हानि ।। प्यारे० ।। २ ।।
श्राली पति मतवाला और रंग । रमे ममता गणिका के प्रसंग || प्यारे० ।। ३ ।। जड़ ते जड़ता घात : अन्त । चित्त फूले आनन्दघनं
अब
वसन्त || प्यारे० ।। ४
( उपर्युक्त पद में कोई तारतम्य नहीं है । पहले पति को सम्बोधित किया गया है और आगे जाकर सखी से वार्तालाप होता है । प्रतीत होता है कि कोई पंक्ति कहीं की और कोई पंक्ति कहीं को लेकर पद बनाया गया है । अतः शंकास्पद है । ).
अर्थ-सुमति कहती है कि है परम गुरु, परम देव ! अब तो सचेत हो जाओ। आपके और मेरे मध्य जो अन्तर है उसे मिटा दो । हे सखि ! लज्जा निगोडी गँवार जाति की है । वह मुझे विविध प्रकार की आज्ञाएँ देकर मुझसे कार्य कराना चाहती है ॥१॥
विवेचन - सुमति आत्म-स्वामी को सचेत होने का निवेदन करती है । चेतन ममता के संग प्रमाद - निद्रा में है । सुमति उन्हें जाग्रत करना चाहती है । सुमति जानती है कि ममता निर्लज्ज है, गँवार है, उससे भाँति-भाँति की प्रज्ञाओं का पालन कराना चाहती है ।
अर्थ-सुमति कहती है कि हे सखी ! यह लज्जा शृंगार सजकर, चुनड़ी पहनकर अपने मिलन में बाधक बनती है ॥२॥
विवेचन - सुमति कहती है कि ममता अन्य व्यक्तियों का निर्मूल करने वाली कुलटा है, विघ्न - सन्तोषी है । यह नहीं चाहती कि हमारा मिलन हो ।