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श्री आनन्दघन पदावली - २११
अर्थ- हे सखी ! पतिदेव तो ममता रूपी वेश्या के जाल में फँसकर मतवाले हो रहे हैं । वे उसी रंग में ममता के साथ रमरण कर रहे
हैं ॥३॥.
के
विवेचन - आत्मा के साथ अशुद्ध भाव में रहने वाली ममता आत्मा मूल धर्म में विकार उत्पन्न करके उसे भ्रान्ति के खड्ड में गिराती है । अतः वह अपनी सखी को कहती है कि पतिदेव उस कुलटा ममता के जाल में फँसकर मतवाले हो रहे हैं । उन्हें उसके फन्दे से छुड़ाना अत्यन्त आवश्यक है ।
अर्थ - सुमति कहती है कि अब तो जड़ होने पर ही अर्थात् पौद्गलिक भाव का नाश होने वसन्त का आगमन होगा, मेरा चित्त रूपी पुष्प आनन्द की प्राप्ति होगी ॥ ४ ॥
वस्तु के ममत्व का अन्त
पर ही प्रात्मज्ञान रूप खिलेगा और प्रत्यन्त
विवेचन - अन्त में प्रात्मा को ज्ञात हुआ कि जड़वास का अन्त जड़ है । जड़ में ममता करने से जड़ वस्तु का तो अन्त हो जाता है । सुमति के उपदेश से ज्ञात हुआ कि जड़ वस्तुओं की ममता करना हितकर नहीं है । आत्मन् सुमति के घर आने लगे जिससे वसन्त तुल्य वातावरण हो गया । सुमति की संगति से आत्मा आनन्द का उपभोग करने लगा ।
( अब कुछ ऐसे पद हैं जिनको 'भाषा एवं शैली श्रीमद् श्रानन्दघन जी के पदों से भिन्न है । ये पद किसी अन्य जैन कवि के अथवा कवियों के हो सकते हैं। इनके विषय में शोध चल रही है ।)
( ७ )
( राग - प्रासावरी )
बेर बेहेर नहीं आवे रे अवसर, बेहेर बेहेर नहीं आवे || ज्यू जां त्यू कर ले भलाई, जनम-जनम सुख पावे । अव ० ।। १ ।
तन धन जोबन सब ही झूठो प्रारण पलक में जावे ।
अव० ।। २ ॥
तन छूटे धन कौन काम को, काय कूँ कृपण कहावे ।
अव० ।। ३ ॥
जाके दिल में सांच बसत है, ताकू झूठ न भावे ।
अव० ।। ४ ।।