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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २२८
यह प्रीति कदापि छूट नहीं सकती । श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने अपने शुद्ध प्रेम का प्रभु के साथ जो सम्बन्ध बताया है और शुद्ध प्रेम के जो उद्गार प्रकट किये हैं, वे सचमुच अपूर्व हैं । हमें भी आनन्दघनजी की तरह परमात्मा के साथ प्रेम जोड़ना चाहिए । वीतराग परमात्मा के साथ प्रेम की लगन लगने पर जगत् के समस्त जीवों के साथ मैत्रीभाव प्रकट होता है । वीतराग परमात्मा के साथ प्रेम होने से जगत् के जीवों का श्रेय हो जाता है ।
अर्थ - जिस प्रकार ध्यानस्थ योगी की स्मरण में लगी तन्मयता दूर करने पर भी दूर नहीं होती; उसी प्रकार श्री जिनेश्वरदेव में लगी हुई मेरी लगन अफीमची तथा योगी की तन्मयता का अनुकरण करने वाली है । आनन्द की वृष्टि करने वाले जिस प्रभु से मेरी लगन लगी है उस प्रभु की मैं बार-बार बलिहारी जाता हूँ। मैं उन पर श्रात्मोत्सर्ग करके उनके अनुरूप बनना चाहता हूँ ।। २ ।।
विवेचन - श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि जिस प्रकार योगी योग के सातवें अंग रूप ध्यान में प्रवेश करता है और उस समय वह इष्ट लक्ष्य में सुरता धारण करता है तथा अनेक विक्षेपों का निवारण करता है । योगी पद्मासन लगा कर कुम्भक आदि प्राणायाम के द्वारा प्राण एवं चित्त की शुद्धि करता है और इष्ट ध्येय के लिए एकाग्रतापूर्वक ध्यान करता है, वह मेरुपर्वत की तरह ध्यान में स्थिर रहता है और ध्यान में से समाधि में प्रवेश करके सहजानन्द का अनुभव करता है; उसी प्रकार से जिसकी भगवान के साथ सुरता की लगन लगी है, उसकी मैं बलिहारी जाता हूँ ।
श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं मेरी भी भगवान से ऐसी ही लगन लगी है । इन्द्र, देवता, मनुष्य एवं तिर्यंच आदि चाहे जैसे उपसर्ग करें तो. भी प्रभु के साथ लगी हुई मेरी लगन छूटने वाली नहीं है । परमात्मा के सम्बन्ध में स्थिर होने से आत्मा परमात्मा बनता है । वीतराग परमात्मा के अनन्त सुख का अनुभव होने पर वीतराग परमात्मा के प्रति शुद्ध प्रेम उत्पन्न होता है ।
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( राग - धनाश्री )
चरी मेरो नाहेरो प्रतिवारो, मैं ले जोबन कुमति पिता बेंभना अपराधी, नउवा है
कित जाऊँ ।
बजमारो ॥
श्ररी० ॥ १ ॥