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श्री आनन्दघन पदावली-२२६
भलो जानि के सगाई कीनी, कौन पाप उपजारो । कहा कहिये इन घर के कुटुम्ब ते, जिन मेरो काम बिगारो ।।
अरी० ॥ २ ॥ नोट-प्रस्तुत पद में कहीं भी प्रानन्दघनजी का नाम नहीं है। भाषा तथा शैली भी भिन्न है। अतः पद शंकास्पद है।
अर्थ –शुद्ध चेतना कह रही है कि हे सखी समता! मेरा पति तो अत्यन्त ही छोटा है अर्थात् प्रथम गुणस्थान में ही है। मैं अपनी यह युवावस्था (धर्मसाधन का समय ) लेकर कहाँ जाऊँ ? मेरे पिताजी (सम्यक्त्व) की बुद्धि पर तो पर्दा पड़ गया। सम्बन्ध कराने वाला वह पुरोहित ही अपराधी है। उस नाई के सिर पर वज्र गिरो जिसने यह सम्बन्ध जुड़ाया है अर्थात् सम्यक्त्व से च्युत करने वाले विचार तथा शुभ अध्यवसायों से दूर हटाने वाली वृत्तियों पर वज्र गिरो जिन्होंने मेरा सम्बन्ध अशुद्ध चेतन से कराया है ॥१॥
विवेचन -श्री बुद्धिसागर सूरीश्वरजी महाराज ने इसका अर्थ बताया है कि अन्तर्मुख वृत्ति नामक चेतन की स्त्री अपनी चेतना सखी को ' कहती है कि हे सखी ! मेरे दुःख का अन्त किसी प्रकार नहीं आ सकता।
मेरा स्वामी मुझसे मिलने आने में विलम्ब करने वाला है, तो मैं अपना . यौवन लेकर कहाँ जाऊँ ? कुमति का पिता मोह कुबुद्धि देने वाला है
और मेरे प्राणनाथ को भ्रमित करने वाला होने से वह अपराधी है। कुमति का पिता मोह दुष्ट बुद्धि से मेरे चेतन को मुझसे दूर रखकर मेरा जीवन निष्फल. कर रहा है जिससे मेरा जीवन अच्छी तरह जाये यह प्रतीत नहीं होता क्योंकि मेरी युवावस्था पति के समागम के लिए
अर्थ -मेरे पिता सम्यक्त्व और माता श्रद्धा ने तो चेतन को भला व्यक्ति (अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र का धनी) समझ कर ही सम्बन्ध किया था किन्तु अब यह कौनसा पाप उदय में आया है ? अशुद्ध चेतन के परिवार वाले लोगों (कषाय आदि) को क्या कहा जाये, क्या उपालम्भ दिया जाये ? इन्होंने तो मेरा समस्त कार्य बिगाड़ दिया है अर्थात् मुझे चेतन से मिलने ही नहीं दिया जाता। मैं चेतन को अपनी ओर खींचती हूँ, शुद्धता की ओर (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप की ओर) लाना चाहती हूँ किन्तु ये दुष्ट परिवारजन (कषाय आदि) चेतन को छोड़ते ही नहीं हैं ।