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योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२३०
मैं इस दुःख से व्यथित हूँ। चेतन को शुद्ध, बुद्ध बनाने वाले क्षमता रूप यौवन को लेकर मैं कहाँ जाऊँ ? ।। २ ।।
विवेचन--श्री बुद्धिसागर सूरीश्वरजी महाराज ने व्याख्या करते हुए बताया है कि हे चेतना सखी! सम्यक्त्व पिता तथा श्रद्धा माता ने चेतन के साथ मेरा सम्बन्ध किया, परन्तु न जाने कौनसा पाप उदय में आया कि जिसके कारण मेरा और पति का सम्बन्ध हो ही नहीं पाता। सखी ! मोह एवं मोह के परिवार को क्या कहें ? मोह के परिवार का स्वभाव ही ऐसा है कि वह मेरे साथ आत्मा का सम्बन्ध होने ही नहीं देता। आत्मा के साथ रमणता करना ही मेरा इष्ट कार्य है, उससे मोह के परिवार ने बिगाड़ दिया है, अतः अब उसे क्या कहें ? मोह के परिवार को कितनी ही बार धिक्कारा जाये तो भी उस पर कोई प्रभाव होने वाला नहीं है, अतः उसे उपालम्भ देना भी व्यर्थ है, क्योंकि दुष्ट मोह का परिवार अपना दुष्ट स्वभाव कदापि छोड़ने वाला नहीं है। क्षयोपशम की अन्तर्मुखवृत्ति का उपर्युक्त विवेचन अन्तर में अनुभव करने योग्य, है। अन्तमुखवृत्ति को आत्मा के साथ मिलाप करने में विघ्न डालने वाला कुमति का पिता मोह और उसका समस्त परिवार है। मनुष्य मोह-वश अन्तर्मुखवृत्ति प्राप्त नहीं कर सकते। अन्तर्मुखवृत्ति से योगी समाधि के सत्य सुख का उपभोग करके स्वकीय जन्म सफल कर सकते हैं। अन्तर्वृत्ति प्राप्त करने में मोह का परिवार विघ्न डालता है। काम, क्रोध, लोभ, माया, मत्सर, अहंकार, हास्य, भय, शोक, निन्दा एवं कलह
आदि मोह के योद्धाओं को जीते बिना अन्तर्वत्ति के प्रदेश में गमन नहीं किया जा सकता।
इस पद का सारांश यह है कि बाह्यवृत्ति का परित्याग करके अन्तर्वत्ति का आदर करना चाहिए। अन्तर्वत्ति की प्राप्ति के लिए सद्गुरु के द्वारा प्रयत्नशील होना ही मनुष्यों का मुख्य कर्त्तव्य है।
(राग-प्रासावरी) मनु प्यारा मनु प्यारा रिखभदेव प्रभु प्यारा । प्रथम तीर्थंकर प्रथम नरेसर, प्रथम यतिव्रत धारा ।
रिखभ० ।। १॥