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श्री प्रानन्दघन पदावली-२३१
नाभिराया मरुदेवी को नंदन, जुगला धर्म निवारा ।
रिखभ० ।। २ ॥ केवल लही मुगते पोहोता, आवागमन निवारा ।
रिखभ० ॥ ३ ॥ प्रानन्दघन प्रभु इतनी विनती, आ भव पार उतारा ।
रिखभ० ॥ ४॥
टिप्पणी-श्री ऋषभदेव को यह स्तुति भाषा-शैली की भिन्नता के कारण शंकास्पद है। .
अर्थ –मेरे मन को भगवान श्री ऋषभदेव अत्यन्त ही प्रिय लगते हैं। वे श्री ऋषभदेव भगवान सबसे प्रथम होने वाले प्रथम तीर्थंकर, सबसे प्रथम होने वाले नरेश हैं और उन्होंने ही सर्वप्रथम साधु-व्रतधारण किया है, स्वीकार किया है ।। १ ॥
विवेचन -श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान. मेरे मन में अत्यन्त प्रिय लगते हैं। अन्य योगी भी आदिनाथ के नाम से श्री ऋषभदेव भगवान की आराधना करते हैं । वे ही प्रथम तीर्थंकर एवं प्रथम नरेश्वर की पदवी के धारक हैं। इस अवसपिणी काल में सर्वप्रथम उन्होंने ही यतिव्रत धारण किया था।
अर्थ ---वे श्री ऋषभदेव भगवान महाराजा नाभिराय एवं मरुदेवी के पुत्र हैं। उन्होंने ही युगल रूप में उत्पन्न होने के नियम का निवारण किया है ॥२॥
विवेचन-वे श्री नाभिनप के पुत्र और मरुदेवी माता के नन्दन हैं। . वे ही युगलियों का धर्म निवारण करने वाले हैं। अर्थात् उन्होंने पुत्र
पुत्री के साथ उत्पन्न होने के नियम का निवारण किया ।
अर्थ-भगवान ऋषभदेव ने साधु-व्रतों का पालन करके केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त की और संसार में जन्म-मृत्यु का क्रम निवारण किया ॥ ३ ॥ ... विवेचन-श्री ऋषभदेव भगवान ने घर-परिवार का परित्याग करके महाव्रत धारण के रूप में दीक्षा अंगीकार की, साधु-वेष में अनेक