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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२३२
वर्षों तक आत्म-ध्यान किया और पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान प्राप्त करके अन्त में केवलज्ञान प्राप्त किया तथा मुक्तिपद को प्राप्त किया। इस प्रकार उन्होंने अपना आवागमन निवारण किया। वे दस हजार मुनिवरों के साथ अष्टापद पर्वत पर देह का त्याग करके मुक्त हुए अर्थात् गमनागमन के भ्रमण से रहित हो गये ।
अर्थ-योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी प्रार्थना करते हैं कि हे . ऋषभदेव भगवान ! मेरी इतनी ही विनती है कि मुझे इस संसार से पार उतार दो। मुझे भी आप जन्म-मरण के फेरे से मुक्ति दिला दो ।। ४ ।।
विवेचन–श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे श्री ऋषभदेव भगवान ! मुझे भी आप भव-सागर से पार उतार दो।. तात्पर्य यह है कि आपके ज्ञानादि सद्गुणों का ध्यान करके संसार-समुद्र का पार पाया जा सकता है। हे प्रभो! मैं आपकी स्तुति करके भव-सागर तरूगा।
(१७)
(राग-केरबा) प्रभ भज ले मेरा दिल राजी रे ।। प्रभ० ।। आठ पहर की साठज घड़ियाँ, दो घड़ियाँ जिन साजी रे।
प्रभु० ॥ १ ॥ दान-पुण्य कछु धर्म कर ले, मोह-माया . त्याजी रे।
प्रभु० ॥ २ ॥ आनन्दघन कहे समझ-समझ ले, आखर खोवेगा बाजी रे ।
प्रभु० ॥ ३ ॥ विशेष -यह पद भी भाषा-शैली से शंकास्पद ज्ञात होता है कि यह योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी द्वारा रचित नहीं है।
अर्थ-हे चेतन ! हे मेरे मन ! तू जिनेश्वर भगवान का स्मरण कर, इससे मुझे प्रसन्नता होगी।