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श्री आनन्दघन पदावली-२३३
दिन-रात के आठ प्रहर होते हैं और आठ प्रहर में २४-२४ मिनट की साठ घड़ियाँ होती हैं। इन साठ घड़ियों में से कम-से-कम दो घड़ी (एक मुहूर्त) तो तू श्री जिनेश्वर भगवान की भक्ति में लगा ।। १ ।।
विवेचन - श्रीमद् आनन्दघनजी भव्य जीव को उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे भव्य जीव ! तू सांसारिक प्रपंचों में प्रवृत्त होकर रागद्वेष में क्यों अन्धा होता है ? तू श्री वीतराग प्रभु का स्मरण कर । तू यदि वीतराग प्रभु का स्मरण करेगा तो मेरा मन प्रसन्न होगा। तू आठ प्रहर. की साठ घड़ियों में से दो घड़ी सामायिक करेगा तो तुझे अत्यन्त लाभ होगा। उससे राग-द्वेष की परिणति मन्द पड़ेगी। अतः हे भव्य जोव ! तू भगवान का स्मरण कर ।
__ अर्थ - श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि अरे चेतन ! मोह-माया को छोड़कर संसार के भ्रम-जाल को छोड़कर कुछ दान-पुण्य और आत्म-शुद्धि के लिए धर्म-कार्य कर ले ॥२॥
विवेचन--श्रीमद् कहते हैं कि हे भव्य जीव ! दान-पुण्य आदि जो तुझसे हो सकता है वह व्यवहार धर्म कर ले। दान देने से उच्च गति की प्राप्ति होती है। समस्त धर्मों में दान का महत्त्व है। पुण्यानुबन्धी पुण्य के हेतुओं का सेवन करके मुक्ति की ओर दृष्टि रख । मोहमाया का परित्याग करके हे भव्य जीव ! आत्मा में रमणता हो उस प्रकार प्रवृत्ति कर। मोह-माया का परित्याग करके भागवती दीक्षा अंगीकार करके पंचमहाव्रत धारण कर ।
अर्थ-श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे चेतन ! तू अच्छी तरह सोच-विचार कर ले। यदि तूने दान-पुण्य और धर्म नहीं किया तो अन्त में तू मानव-भव की बाजी खो बैठेगा। तेरा मनुष्य-जन्म व्यर्थ चला जायेगा।
विवेचन–श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे भव्य जीव ! तू इतनी बात में सब कुछ समझ ले। यदि तू नहीं समझा तो अन्त में मनुष्य-भव की बाजी खो देगा। मनुष्य-भव अमूल्य है अतः हे मानव तू चेत ।