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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२३४
(१८)
(राग-मारू) ब्रजनाथ से सुनाथ बिन हाथों हाथ बिकायो। बीच को कोउ जन कृपाल, सरन नजरि नायो । टेक ।। .. जननी कहुं जनक कहुं, सुत सुता कहायो। भाई कहुँ भगिनी कहुं, मित्र शत्रु भायो ।। ब्रज० ।। १ ।। रमणी कहुँ रमण कहुँ, राउ रज तुलायो। . .. सेवक पति इन्द चन्द, कीट भृग गायो ।। ब्रज० ।। २ ।। कामी कहँ नामो कहुँ, रोग भोग मायो। निसपति धरी देह गेह विविध विधि धरायो ।। ब्रज० ।। ३ ।। विधि निषेध नाटक धरि, भेष ठाट छायो। भाषा षट् वेद चारि, सांग सुध पठायो ।। ब्रज० ।। ४ ।। तुम्ह से गजराज पाइ, गर्दभ चढ़ि धायो। . पायस सुगृह को विसारि, भीख नाज खायो ।। ब्रज० ।। ५ ।। लीला मुंह टुक नचाइ, कही जु दास प्रायो। रोम-रोम पुलकित हूँ, परम लाभ पायो ।। ब्रज० ।। ६ ।।
अर्थ-श्रीमद् अानन्दघन जी महाराज वीतराग परमात्मा को कृष्ण कहकर उनकी स्तुति करते हैं। कदाचित् वे ब्रज में गये हों उस समय कृष्ण रूप में सापेक्ष दृष्टि से वर्णन किया प्रतीत होता है। ब्रज अर्थात् समूह, आत्मा का असंख्य प्रदेश रूप ब्रज देश जाने और परमात्मा, उसके नाथ होने के कारण ब्रजनाथ कहलाते हैं। श्रीमद् आनन्दघन जी हृदय में से भक्ति की मियाँ बाहर निकालते हैं। भगवान की भक्ति से सब प्रकार के पाप नष्ट होते हैं। भगवान की सेवा के बिना अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमरण करना पड़ा। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य एवं अनन्त सुख के नाथ के बिना, उनकी भक्ति एवं ध्यान के बिना
चेतन जगत् में कन्दमूल आदि अवतारों में हाथों हाथ बिका। गौ आदि पशुओं के तथा दासों के अवतारों में अनेक बार बिका। परमात्मा के