________________
श्री आनन्दघन पदावली-२३५
अतिरिक्त जगत् में कोई शरण नहीं है। अत: हे प्रभो ! अब मैं आपकी शरण में आया हूँ ॥१॥
अनेक बार जननी के अवतार हुए तथा अनेक बार पिता के रूप में अवतार पाया, अनेक बार पुत्रों का अवतार धारण किया, अनेक बार पुत्रियों के अवतार धारण किये, अनेक बार अनेक जीवों के भ्राता के रूप में जन्म लिया और अनेक बार बहन के रूप में सम्बन्ध धारण किया और अनेकबार अनेक जीवों के मित्र तथा शत्रु के रूप में सम्बन्ध धारण करना पड़ा ।। २ ।।
हे भगवन् ! अनेकबार अनेक जीवों के साथ पत्नी के रूप में सम्बन्ध धारण करना पड़ा। कर्म-योग से अनेक प्रकार के अवतार लेने पड़े। कभी राजा बना और कई बार रज (मिट्टी) तुल्य गिना गया। देवताओं के स्वामी इन्द्र एवं चन्द्रमा आदि के अवतार भी धारण करने पड़े और अनेकबार कीट एवं भृग के अवतार धारण करने पड़े ।। ३ ।।
जगत् में स्त्री-वेद, पुरुष-वेद और नपुसक-वेद के कारण कामी की अवस्था धारण की। हे प्रभु ! अनेक प्रकार के नाम धारण किये। क्या-क्या नाम गिनाऊँ ? मैंने. अनेक प्रकार के रोग सहन किये तथा अनेक भोगों का उपभोग 'किया, परन्तु तनिक भी शान्ति प्राप्त नहीं हुई ।। ४ ।। - हे भगवन् ! विधि तथा निषेध के नाटक धारण करके आठ प्रकार के भेष से छाया रहा। छह प्रकार की भाषा, चार वेद और उसके अंगों का शुद्ध पाठ पढ़ा, परन्तु हे भगवन् ! अात्मा में उतरे बिना और यथाविधि सेवा-भक्तिपूर्वक उसकी आराधना किये बिना मेरा कोई ठिकाना नहीं बन पड़ा ।। ५॥
हे परमात्मा ! आपके समान गजराज को प्राप्त करके भी मोह रूपी गर्दभ पर सवार होकर संसार-मार्ग में दौड़ा। अपने असंख्यात प्रदेश रूपी घर के आनन्द रूपी पायस भोजन का त्याग करके पुद्गलरूपी जठे अन्न की मैंने भिक्षा मांगी और उसे खाया ॥ ६ ॥
हे भगवन् ! संसार की लीला भूमि में नाच कर अब तो यह दास आपकी शरण में आया है। आपकी शरण प्राप्त करके मेरा रोम-रोम पुलकित हो गया है और आपके दर्शन से मैं परम लाभान्वित हुया हूँ। भगवान वीतरागदेव की शरण में आने से कर्म का सम्बन्ध तनिक भी