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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२३६
नहीं रहता। परमात्मा का शरण सचमुच समस्त प्रकार के गुणों को प्रकट करता है। अहंत्व एवं ममत्व की भावना लय करके परमात्मा के स्वरूप में लीन हो जाना ही परमात्मा का शरण लेना कहा जाता है ।। ७ ॥
अरे! आप स्वयं को पतितोद्धारक कहते हैं सो क्या नशा पीकर कहते हैं ? आज तक आप मेरे जैसे पापी का उद्धार किये बिना पतितोद्धारक ऐसा विरुद कैसे धारण कर सकते हैं ? मेरे जैसे कर, कुटिल और कामी का आप उद्धार करें तो मैं आपका पतितोद्धारक विरुद सत्य मान सकू ।।८।।
आपने हे भगवन ! अनेक पापियों का उद्धार किया और करनी के बिना कर्ता कहलाये; परन्तु मैं आपको पूछता हूँ कि एक का तो नाम बतायो। कारण के बिना कर्ता होने से आपको मैं असत्य विरुद को धारण करने वाला क्यों न मानू ? ये वचन प्रेम-भक्ति के आवेश के हैं ।। ६॥
धर्म-करनी करके अनेक मनुष्य .भव-सागर. तर गये जिसके लिए शास्त्र साक्षी हैं। वे सब धर्म-करनी करके तर गये मौर आपको शोभा देकर आपकी पत रखी, मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है ।। १० ।।
श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि अत्यन्त पाप रूप अपराध करने वाला मैं अज्ञानी आपका दास हूँ। यदि आप हृदय में मेरी लज्जा रखकर मुझे सुधारेंगे और पार लगायेंगे तो मैं आपकी उद्धारकता मानूगा। परमात्मा हृदयरहित है। मन, वाणी एवं काया से रहित सिद्ध परमात्मा है, परन्तु भक्त भक्ति के आवेशं में उपर्युक्त वचन कहता है ॥ ११ ॥
आप कहेंगे तू अन्य का उपासक है, अतः मैं तेरा उद्धार कैसे कर सकता हूँ ? आप ऐसा द्वैत-भाव न रखें। उपास्य और उपासक दो का भेद है, ऐसा विचार आपके लिए करना उचित नहीं प्रतीत होता। परमात्मा को दुविधा नहीं होती है, परन्तु भक्त भक्ति के प्रेमावेश में पाकर भगवान को इस प्रकार कहता है। राग-द्वेष का पूर्णतः क्षय होने से परमात्मा में कोई दुविधा नहीं है। भक्ति के उल्लास में और प्रेम.से गद्गद भक्त जो कहता है, उसमें भक्तिरस की मुख्यता, हृदय की शुद्धता और भक्तिजन्य नम्रता देखने की आवश्यकता है। भक्ति-रस में तन्मय बना भक्त परमात्मा के साथ एकता का अनुभव करता है ।। १२ ॥