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________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-३८ स्वाद का जिन्होंने आस्वादन नहीं किया है, ऐसे भोले मनुष्यों को इसका स्वरूप कैसे समझाया जा सकता है ? इसके लिए तो यह कहा जा सकता है कि इस अनुभव-प्रीति का तीर अचूक है, रामबाण है, जिसे यह तीर लग जाता है वह स्थिर हो जाता है। मुझे अनुभव-प्रेम का बाण लग गया है जिससे मैं स्थिर हो गया है। जिसके यह तीर लग जाता है वह विषय-वासना में न जाकर प्रात्म-ध्यान में लीन हो जाता है, उसका मन बहिरात्म भाव में नहीं जाता और उसकी समस्त क्रियाएँ सहज भाव से होती हैं, उसे बल-प्रयोग नहीं करना पड़ता। इसके लिए एक व्यावहारिक विषय-प्रेम का दृष्टान्त देकर बताया गया है कि जिस प्रकार नाद पर आसक्त हिरन अपने प्राणों को तिनके के समान भी नहीं गिनता, उसी प्रकार प्रानन्द स्वरूप प्रभु-प्रेम में लीन व्यक्ति अपने प्राणों की तनिक भी परवाह नहीं करता। इस. प्रभु-प्रेम की कथा तो अकथ है। इसे विरले ही जानते हैं। इसी प्रकार से जिसको अनुभव ज्ञान-प्रीति लगी है वह संसार में किसकी परवाह करेगा? स्वर की शक्ति भी कितनी बलवती होती है कि हिरन उस पर लुब्ध होकर अपने प्राणों की तंनिक भी परवाह नहीं करता, तो फिर चैतन्य सत्ता तो उस स्वर से अनन्तगुनी प्रबल है। उस सत्ता में समस्त वासनाओं की बलि देकर अपनी वृत्ति का लीन होना स्वाभाविक है; परन्तु धन, परिवार आदि को ममता में फंसे मनुष्य इस स्वाभाविक दशा को भी नहीं समझ सकते। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे चेतन ! तेरे साथ हुए अनुभव प्रेम की कोई अनिर्वचनीय कथा है जिसका वर्णन किसी अन्य के समक्ष नहीं किया जा सकता। (राग-रामगिरि) क्यारे मुने मिलसे महारो संत सनेही। . संत सनेहो सूरिजन पाखे, राखे न धीरज देही ।।क्यारे०....।१। जन-जन आगल अन्तरगतनी, वातलडी कहुं केही। प्रानन्दघन प्रभु वैद्य वियोगे, किम जीवै मधुमेही ?? क्यारे ।२। अर्थ-सन्त पुरुषों का स्नेही मेरा आत्म-स्वामी अब मुझे कब मिलेगा? उसके बिना अब तो देह में निवास करने वाले मेरे प्राण भी
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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