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श्री आनन्दघन पदावली-३६
धर्य नहीं रख सकते। मैं अपने सन्त-स्नेही चेतन के बिना कैसे रह सकता हूँ ? उसके अभाव में मुझे सम्पूर्ण जगत् शून्यवत् प्रतीत होता है। अब मैं उसका विरह सहन कर सकू, ऐसी शक्ति मुझमें नहीं है। उसे मिलने की मेरी उत्कट इच्छा प्रति पल बढ़ती ही जा रही है। मैं उसके बिना प्रचेत-सा हो गया हूँ। मुझे पलभर के लिए भी चैन नहीं मिल रहा। अब मुझे मेरे स्वामी से मिलन कब होगा? मैं उनकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। इस प्रकार प्रानन्दघनजी शुद्ध प्रेम के उद्गारों के द्वारा अन्तर-चेतना की दशा व्यक्त करते हैं ।। १ ॥
मैं प्रत्येक व्यक्ति के समक्ष अपने अन्तर की कितनी बातें कहूँ ? अब तो उनके वियोग की चरम दशा का मैं अनुभव कर रहा हूँ। अब शुद्ध चेतन के स्वरूप के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु का मुझे स्मरण नहीं होता। आनन्दघनजी कहते हैं कि अब मैं जीवित नहीं रह सकता। जिस प्रकार मधु-प्रमेह का रोगी वैद्य के बिना जीवित नहीं रह सकता, उसे वैद्य के उपचार की निरन्तर आवश्यकता रहती है; उसी प्रकार से मैं भी अपने अानन्द-स्वरूप आत्म-स्वामी के बिना कैसे जीवित रह सकता हूँ? मैं क्या करू ? मेरा यह जीवन व्यर्थ है। आत्म-स्वरूप प्राप्त करने की मेरी उत्कट अभिलाषा है ।। २ ।।
(७)
(राग-रामगिरि) जगत गुरु मेरा, मैं जगत का चेरा। मिट गया वाद-विवाद का घेरा ।। जगत० ।। १ ।। गुरु के घर में नवनिधि सारा, चेले के घर में निपट अंधारा । गुरु के घर सब जरित जराया, चेले को मढिया में छप्पर छाया ।
॥ जगत० ।। २ ।। गुरु मोहि मारे शबद को लाठी, चेले की मति अपराधनी नाठी। गुरु के घर का मरम न पाया, अकथ कहानी आनन्दघन माया ।
। जगत० ।। ३ ।। अर्थ--श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि यह संसार सद्गुणों की शाला है। यहाँ से अनेक गुरण ग्रहण करने योग्य हैं। ज्ञानामत का