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श्री आनन्दघन पदावली - ३७
अतः उठते-बैठते, चलते और बातें करते हुए अन्तर में समता का परिणाम रखना चाहिए ।
( ५ )
(राग - बिलाबल )
सुहागण जागी अनुभव प्रीत |
नींद अज्ञान अनादि की, मिट गई निज रीत || सुहा०
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घट मंदिर दीपक कियो, सहज सुज्योति सरूप ।
आप पराई श्रापु ही, ठानत वस्तु अनूप ॥ सुहा० ....।।२।।
कहा दिखावु और कु, कहाँ समझाउं भोर ।
तीर अचूक है प्रेम का, लागे सो रहै ठोर ।। सुहा०....।।३।। नादविद्धो प्राण कुं, गिने न तृण मृगलोय | आनन्दघन प्रभु प्रेम का, अकथ कहानी कोय || सुहा०
॥४॥
श्रर्थ–श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि मुझे सौभाग्यवती अनुभव प्रीति जाग्रत हो गई है । इसके जाग्रत होने से मैंने अनादिकालीन मोहनिद्रा ( अज्ञान रूपी निद्रा) का नाश करके स्वाभाविक दशा रूप निज परिणति ग्रहरण कर ली है । अब मैंने शुद्ध धर्म की रीति ग्रहण कर अब मैं शुद्ध धर्म - रीति के अनुसार चलूंगा ।
है।
मैंने हृदय-मन्दिर में विवेक ज्ञान रूप स्वाभाविक ज्योति युक्त दीपक प्रज्वलित कर दिया है । ज्ञान-रूप दीपक के द्वारा मैंने अपना तथा पर जड़ वस्तुओं का भेद मालूम कर लिया है । तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्व प्राप्त होने पर हेय उपादेय, आत्मभाव एवं जड़-भाव का निर्णय अनोखी रीति से स्वतः ही तुरन्त हो जाता है । मैंने अपनी वस्तुनों को अपना जान लिया है और परर वस्तुनों को ज्ञान- दीपक से पर जान लिया है ।
सहज ज्योति स्वरूप यह आत्मा में दूसरों को कैसे बताऊँ तथा भोले स्त्री-पुरुषों एवं धन में प्रासक्त लोगों को कैसे समझाऊँ ? यह सौभाग्यवती अनुभव प्रीति आँखों से दिखाई नहीं देती तथा वाणी के द्वारा इसके रूप का वर्णन नहीं किया जा सकता । इस अनुभव प्रीति के