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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६ भोले एवं मूढ मनुष्य धन की सुरक्षा के लिए धन को भूमि में गाड़ते हैं और ऊपर से मिट्टी डालते हैं। यह धन पर मिट्टी डालना नहीं है, अपने ही मुह पर मिट्टी डालना है क्योंकि जिन लोगों की धन पर अत्यन्त आसक्ति होती है, वे ही उसे भूमि में गाड़ते हैं। दृढ़ प्रासक्ति के कारण ही वे मर कर वहीं चूहे अथवा साँप होते हैं और अनेक दुःख सहन करते हैं। अतः उक्त धन लक्ष्मी नहीं है, अलक्ष्मी है। यदि वह लक्ष्मी होती तो साँप, मूषक का जन्म क्यों प्राप्त होता? असली लक्ष्मी तो आत्मिक गुण हैं, जिनसे वास्तविक सुख प्राप्त होता है । वैदिक मतानुसार समुद्र में से चौदह रत्न निकले थे। अतः उसे रत्नाकर कहा जाता है। अब भी समुद्र में से मोती, मूगा आदि रत्न निकलते हैं, परन्तु इन रत्नों से जीव का आत्मिक उत्थान नहीं हो सकता। अतः ये द्रव्य-रत्न हैं। क्षमा, सन्तोष आदि भावरत्न मनुष्य के हृदय से प्रकट होते हैं। इसलिए मनुष्य का हृदय ही भाव रत्नाकर है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि समता हृदय रूपी रत्नाकर की पुत्री है। अनुभव रूपी चन्द्रमा इसका श्रेष्ठ भाई है। समता पात-रौद्र ध्यान रूपी हलाहल विष को त्याग कर शुभ परिणाम-धर्मशुक्ल रूपी अमृत को स्वयं ले पाती है। ___ समता की ऐसी अपूर्व शक्ति है कि जो विष का त्याग करके स्वयं अमृत का आकर्षण करती है और अमर-पद प्राप्त करने के लिए अमृत का संग्रह करती है, अतः समता की जितनी प्रशंसा की जाये उतनी कम है। समता से दो घड़ी में केवलज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। समता की प्राप्ति होने पर अनुभव अनायास ही आ जाता है। ___ समता रूपी लक्ष्मी हजार नेत्रों वाले, हजारों चरणों वाले और चार मुंह वाले मोहरूपी राक्षस को देखकर अत्यन्त भयभीत हो गई, अर्थात् मोह रूपी महाराक्षस जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी चार मुह हैं, हजार नेत्र और पाँव हैं, जिनके द्वारा वह समता का नाश करता है, उसको देखकर समता भयभीत हो जाती है। श्री आनन्दघनजी कहते हैं कि राग-द्वोष रहित, प्रानन्दस्वरूप, पुरुषों में श्रेष्ठ वीतराग परमात्मा ने प्रेमपूर्वक समता को गले लगाया अर्थात् जो व्यक्ति समता से स्नेह रखते हैं वे ही परम-पद के अधिकारी होते हैं। - समता से उत्तम सुख की प्राप्ति होती है, इससे अनेक भवों में संचित कर्मों का क्षय होता है। समता ही प्रात्मा का शुद्ध धर्म है।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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