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श्री आनन्दघन पदावली - ३३७
विवेचनः -- हे भव्य जीव ! जो जीव दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थिर रहता है उसे स्व समय जानो और जो जीव पुद्गल कर्म के प्रदेशों में स्थित होता है उसे पर समय समझो ।
अर्थ - भावार्थ:- जिस प्रकार तारों, नक्षत्रों, ग्रहों और चन्द्रमा की ज्योति सूर्य में निहित है; उसी प्रकार से दर्शन ज्ञान और चारित्र को निज आत्म-शक्ति ही समभो ।। ३ ।।
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अर्थ - भावार्थः – स्वर्ण भारी, पीला, चिकना आदि अनेक भेद युक्त गुण- पर्याय वाला है किन्तु पर्याय को गौण समझें तो स्वर्ण में समस्त तरंगों (भेदों) का अखण्ड रूप से समावेश हो जाता है । अर्थात् स्वर्ण के भारीपन, पीलेपन, चिकनेपन पर दृष्टि न दें तो केवल स्वर्ण दृष्टिगोचर होता है । उसी प्रकार से ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आत्मा के साधारण तौर पर पृथक्-पृथक् गुण प्रतीत होते हैं, किन्तु वे समस्त श्रात्मा रूप ही हैं ॥ ४ ॥
अर्थ - भावार्थ:-- दर्शन, ज्ञान और चारित्र के भेद से अलख आत्मा के अनेक स्वरूप हैं । विकल्प त्याग कर शान्तिपूर्वक यदि सम्यक् दृष्टिकोरण से देखें तो शुद्धं निरंजन श्रात्मा तो एक ही है । अर्थात् आत्म गुण पर्याय दृष्टि से अनेक स्वरूप युक्त हैं और निर्विकार दृष्टि से उसका शुद्ध निरंजन स्वरूप है, सिद्ध स्वरूप है ।। ५ ।।
जगनाथ श्री अरनाथ प्रभु के जो अनन्य उपासक हैं, ऐसे योगिराज श्रीमद् नन्दघनजी महाराज के चरणारविन्द में कोटि-कोटि वन्दन ।
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