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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३३६
परमारथ पद जे कहे, ते रजे इक तंत रे । व्यवहारे लखि जे रहे, तेना भेद अनन्त रे। ..
धरम० ।। ६.॥ व्यवहारे लाख दोहिलो, कांइ न आवे हाथ रे।। शुद्ध नया थापन सेवतां, नहि रहे दुविधा साथ रे।।
धरम० ॥ ७ ॥ एक पखि लखि प्रीतनी, तुम साथ जगनाथ रे। किरपा करीने राखज्यो, चरण तले गति हाथ रे।
धरम० ।। ८ ।।
चक्री धरम तीरथ तणा, तीरथ फल तत सार रे। तीरथ सेवे ते लहै, 'पानन्दघन' निरधार रे। ..
. . धरम० ॥ ६ ॥
शब्दार्थ:--स्व-अपना । पर अन्य का। · समय=सिद्धान्त । महिमावंत यशस्वी। परवड़ी अनात्म भाव वाली बड़ी। नखत नक्षत्र । दिनेश सूर्य । परजाय पर्याय, अवस्था । अभंग = भेद रहित । चरण= चारित्र । अलख जो दिखाई न दे। निरंजन=निर्दोष। रंजे प्रसन्न होवे । लखि=लक्ष्य । लख = लक्ष्य । दोहिलो=कठिन । दुविधा संशय । गहिपकड़कर। चक्री=चक्रवर्ती। लहैं प्राप्त करे। निरधार= निश्चय ही।
अर्थ-भावार्थः-श्री अरनाथ जिनेश्वर का धर्म परम उत्कृष्ट है। ऐसे उत्कृष्ट धर्म को मैं कैसे जान सकता हूँ? हे महिमावन्त प्रभो! आत्म-धर्म एवं पर-दर्शन (विभाव धर्म) का स्वरूप मुझे समझाइये ।। १॥
अर्थ-भावार्थः-द्वितीय पद्यांश में मानों स्वयं भगवान उत्तर देते हैं कि शुद्ध आत्म-स्वरूप का दिव्य अनुभव होता रहे, यह सब समय का विलास है। पर-पदार्थ अर्थात् अनात्म भाव की जहाँ छाया पड़ती है, तो वह पर-समय निवास है। अर्थात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र में स्थिति पर-समय है ॥ २॥