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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य - ३३८
अर्थ - भावार्थ:- जो परमार्थ मार्ग बताने वाले हैं, जो परमार्थ मार्ग पर आचरण करने वाले हैं, निश्चयवादी हैं; वे तो केवल आत्म-तत्त्व से प्रसन्न होते हैं और जिनका व्यवहार की ओर लक्ष्य रहता है अर्थात् जो व्यवहार नयवादी हैं उन्हें इसके ( आत्मा के ) अनन्त भेद ( ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अजर-अमर, अव्याबाध आदि) दृष्टिगोचर होते हैं ।। ६ ।।
श्रर्थ - भावार्थ:- व्यवहार नय से लक्ष्य तक पहुँचना कठिन है । व्यवहार नयवादी अन्तरंग से अनभिज्ञ होने के कारण उसको परमार्थरूप कुछ भी हाथ नहीं आता, परन्तु शुद्ध नय को हृदय में स्थापित करके जो मनुष्य आचरण करता है, उसे किसी प्रकार की दुविधा का सामना नहीं करना पड़ता ।। ७ ।।
अर्थ - भावार्थ :- हे जगनाथ श्री अरनाथ प्रभो ! आपके प्रति मेरी प्रीति एकपक्षीय है क्योंकि आप तो वीतराग हैं और मैं साधक की दशा में हूँ। मैं साधक दशा से गिर न जाऊँ, अतः कृपा करके मेरा हाथ पकड़ कर आप मुझे चरणों के तले ही रखना ।। ८ ।।
अर्थ - भावार्थ :- हे अरनाथ प्रभो ! प्राप चतुर्विध संघ रूपी धर्मतीर्थ के चक्रवर्ती हैं, सम्राट् हैं । आप ही इस धर्म - तीर्थ के फल रूप ध्येय है । जो भव्य आपके धर्म - तीर्थ की सेवा आराधना करता है, वह निश्चय ही आनन्दघन पद (मोक्ष) को प्राप्त करता है | !!
( १९ )
श्री मल्लिन जिन स्तवन ( राग काफी )
सेवक मि श्रवगणिबेहो, मल्लि जिन, ए अब सोभा सारी । अवर जेने आदर प्रति दिये, तेने मूल
निवारी हो ।
मल्लि० ।। १ ।।
ताणी ।
प्राणी हो । मल्लि० ।। २ ।।
ज्ञान सरूप अनादि तुमारू, ते लीधो तुम जुम्रो ज्ञान दशा रीसावी, जातां कारण न