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प्राक्कथन
नैनमल विनयचंद्रजी सुराणा, सिरोही मेड़ता शहर में श्रीमद अानन्दघनजी योगिराज का मन्दिर बना। मन्दिर में श्रीमद् की मूर्ति को प्रतिष्ठित किया गया। उस समय मेड़ता शहर निवासी श्री मांगीलालजी मंगलचंदजी तातेड़ ने अपनी इच्छा व्यक्त की कि योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनके काव्य पर एक ग्रन्थ का प्रकाशन होना चाहिए। परम पूज्य आचार्य भगवन् श्री सुशील सूरीश्वरजी महाराज साहिब तथा प. पू. पंन्यास श्री जिनोत्तम विजयजी गरिणवर्य म. सा. ने उनकी विनती स्वीकार करके मेरे सामने यह प्रस्ताव रखा कि इस ग्रन्थ का 'सुशील साहित्य-प्रकाशन समिति' के माध्यम से प्रकाशन हो जाये तो कैसा रहेगा? मैंने भी प्राचार्य भगवन् की बात को शिरोधार्य कर लिया और निवेदन किया कि उक्त ग्रन्थ का सम्पादन तथा लेखन मैं कर लूगा। श्रीमद् के समस्त पदों, स्तवनों तथा उनकी अन्य रचनाओं के शब्दार्थ, अर्थ, भावार्थ एवं विवेचन मैं तैयार कर लगा और उनका सम्पूर्ण काव्य अर्थ-भावार्थ-विवेचन सहित पाठकों के समक्ष शीघ्र ही प्रस्तुत कर सकूगा।
'सुशील-सन्देश' के अनेक आजीवन सदस्यों एवं संरक्षकों की भी उत्कट अभिलाषा थी कि योगिराज श्रीमद अानन्दधनजी के पदों, स्तवनों तथा अन्य रचनाओं के अर्थ एवं विवेचन सहित एक संकलन प्रकाशित होना ही चाहिए। तदनुसार श्रीमद् पर अनेक पुस्तकों तथा ग्रन्या का अवगाहन करके कार्य प्रारम्भ किया। श्री प्रानन्दघन पद संग्रह' प्रकाशक-श्री अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल, मुम्बई तथा श्री विजयचन्द जरगड़, जयपुर द्वारा प्रकाशित 'अानन्दधन ग्रन्थावली' का अवलोकन करके और कुछ अन्य पुस्तकों की सहायता से पदों एवं स्तवनों के अर्थलेखन का कार्य प्रारम्भ किया गया। अन्य पुस्तकों में दिये गये प्रथों में उचित प्रतीत हुअा वहाँ अमुक संशोधन, परिवर्तन एवं परिवर्धन करके मैंने पदों एवं स्तवनों के अर्थ सरल एवं हृदयंगम करने योग्य बनाकर प्रस्तुत किये हैं। यथासम्भव प्रत्येक पद तथा स्तवन का विवेचन प्रस्तुत करके पाठकों की रुचि को जागृत करने का कार्य किया गया है।