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. श्री आनन्दघन पदावली-४३
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(राग-प्रासावरी) अवधू नटनागर की बाजी, जाणे न बामण काजी। थिरता एक समय में ठाने, उपजे विणसे तबही । उलट-पलट ध्र व सत्ता राखे, या हमसुनी न कबही ।।अवधू०॥१।। एक अनेक अनेक एक फुनी, कुण्डल कनक सुभावे । जल-तरङ्ग घट मादी रविकर अगनित ताहिं समावे ॥अवधू०॥२॥ है नांही है वचन अगोचर, नयप्रमाण सत्तभंगी। निरपख होय लखे कोई विरला, क्या देखे मत जंगी ।।अवधू०।।३।। सर्वमयी सरवंगो माने, न्यारी सत्ता भावे । आनन्दघन प्रभु वचन सुधारस, परमारथ सो पावे ॥प्रवधू०।।४।।
.. अर्थ- इस पद में जनदर्शन के अनोखे सिद्धान्त-द्रव्य-गुण और पर्याय का सुन्दर वर्णन किया गया है। द्रव्य सदा एक-सा रहता है चाहे उसके रूप सदा परिवर्तित होते ही रहें। द्रव्य के द्रव्यत्व का कदापि नाश नहीं होता। रूप सदा परिवर्तनशील होते हैं। प्रात्मा पर्यायों के कारण रूप बदलता रहता है, किन्तु प्रात्मा-आत्मा ही रहता है। स्वर्ण बार-बार गलकर अंगूठी, कड़ा, कुण्डल आदि का रूप धारण करता है, परन्तु वह स्वर्ण का स्वर्ण ही रहता है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे अवधू ! 'देह रूपी नगर में निवास करने वाले प्रात्मा रूप नागरिक चतुर नट का खेल अत्यन्त ही आश्चर्यजनक है। आत्मा के खेल के रहस्य को वेदज्ञ ब्राह्मण तथा कुरान के पूर्ण ज्ञानी काजी जैसे विद्वान् पुरुष भी जान नहीं सकते। आत्मा में जिस समय ध्र वता है, उसी समय में ज्ञानादि पर्यायों का उत्पाद-व्यय होता है, परन्तु आत्मा अपनी द्रव्य रूप सत्ता को तो स्थिर रखता है। उत्पाद-व्यय की उथलपुथल सदा चलती रहती है। उत्पन्न होना, विनाश होना तथा उसी समय स्थिर रहना यह बड़ी विचित्रता है, जो हमने कभी नहीं सुनी। हमने ही नहीं वेदों के पारंगामी विद्वान् ब्राह्मणों और कुरान के ज्ञाता काजी-मुल्लाओं ने भी नहीं सुनी ।। १ ।।