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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-४२
एहि काम-गवि, एहि कामघट, एहि सुधारस मंजन । प्रानन्दघन घटवन केहरि, काम मतंगज गंजन ।
। अब० ।। ३ ।। अर्थ-श्रीमद् प्रानन्दघनजी कहते हैं कि अब तो मेरे निरंजन देव पति ही मेरे शरण-भूत हैं। अर्थात् निश्चय नय से कर्म-मल रहित मेरा निरंजन आत्मा ही मेरा पाराध्य है, यह अात्मा ही मेरा स्वामी है। मुझे इसका ही पालम्बन है। अत: मैं तीर्थों आदि पर क्यों भटकू ? कहाँ-कहाँ जाकर अपना मस्तक झुकाऊँ ? किसलिए जन-रंजन करता रहूँ ? अब मैंने जान लिया है कि मेरे स्वामी निरंजन हैं। वे ही मेरे स्वामी हैं, फिर मैं अन्य स्वामी को क्यों ढूढता फिरू। बाह्य स्वामी सदा एक नहीं रहते। बाह्य स्वामी के पौद्गलिक देह होती है, परन्तु मेरे अन्तर का सिद्ध परमात्म रूप स्वामी तो कर्म से न्यारा है। उसके जन्म-जरा-मृत्यु नहीं है। निरंजन देव का रूप कदापि नहीं बदलता। शुद्ध परिणति का कथन है कि सत्य, स्वाभाविक पति निरंजन आत्मदेव है। अतः अब मैं बाह्य पति के लिए क्यों भटकू ? मैं किसी के समक्ष सिर क्यों झुकाऊँ ? मैंने अपने पति को परख लिया है। अब मेरा भ्रम दूर हो गया है। मैंने अनादि काल से अनेक पति बनाये, परन्तु चतुर्गति के मेरे फेरे नहीं टले। मैं तो शुद्ध परिणति हूँ। अतः मैं तो शुद्धात्मपति से प्रेम करूंगी ।। १ ॥
परमात्म स्वरूप को देखने के लिए खंजन पक्षी के समान लम्बे एवं सुन्दर नेत्र मुझे नहीं चाहिए और न मुझे उन नेत्रों को सुन्दर बनाने के लिए अंजन की आवश्यकता है। मैं तो अपने पति के स्वरूप में लीन हूँ। समस्त पापों एवं भयों को दूर करने वाला परमात्मा तो मेरे अन्तर में ही है ॥ २॥
मेरी आत्मा ही कामधेनु है। कामधेनु जिस प्रकार मनोवांछित फल प्रदान करती है, उसकी अपेक्षा मेरा शुद्ध आत्मदेव अनन्तगुणा अधिक सुख प्रदान करने में समर्थ है। आत्मस्वामी ही कामघट है, काम-कुम्भ है और यही अमृत-रस का स्नान है। आनन्द का घन जिसमें है ऐसा आत्मप्रभु ही मेरे मनरूपी वन के हाथी का नाश करने वाला सिंह है। मेरे मन रूपी वन में आत्मस्वामी एक सिंह के समान है। जिस प्रकार सिंह को देखकर अन्य पशु पलायन कर जाते हैं, उसी प्रकार शुद्ध परिणति के हृदय में आत्म-स्वामी का ध्यान होते ही कामरूप गज तुरन्त पलायन हो जाता है ।। ३ ।।