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श्री आनन्दघन पदावली-४१
साधु संगति अरु गुरु की कृपा तें, मिट गई कुल की रेखा । प्रानन्दघन प्रभु परचो पायो, उतर गयो दिल भेखा ।
।। साधु० ।।२।। अर्थ-हे सज्जन साधु बन्धुप्रो ! जब मैंने अपना आत्म-स्वरूप देखा, स्वयं को पहचाना तो प्रश्न उत्पन्न हुअा कि कर्त्ता कौन है ? करनी (कर्म) क्या है और अच्छे-बुरे कार्य का हिसाब मांगने वाला कौन है ? मैं स्वयं ही कर्ता हूँ, मेरे कार्य ही मेरी करनी हैं और इनका हिसाब मांगने वाला भी मैं ही हूँ। जैसी करनी की है, जैसे कर्म किये हैं, उसका भोक्ता मैं ही हूँ। मेरी करनी का हिसाब मांगने वाला कोई अन्य नहीं है, मैं स्वयं ही हूँ। मेरी करनी के अनुसार ही मुझे फल मिलता है। मन कभी निश्चल नहीं रहता। वह कुछ-न-कुछ करता ही रहता है। किन्तु इन कार्यों में जब तक राग-द्वष है, तब तक बन्ध है। राग-द्वेष रहित करनी इस जीव को बन्धन में नहीं डाल सकती। शुभ कार्य का फल शूभ मिलता है और अशुभ कार्य का फल अशुभ मिलता है। इसमें लेखा रखने वाले की आवश्यकता नहीं रहती ॥ १ ॥ . वैरागी, त्यागी एवं ज्ञानी साधुओं की संगति से और गुरुदेव की कृपा-दृष्टि से अब कुल की रेखा टल मई अर्थात् कुल, जाति, वेश आदि का अभिमान नष्ट हो गया। आनन्द के समूह से मेरा परिचय हो गया अर्थात् अब मुझे आत्म-तत्त्व का अनुभव हो गया, जिससे मेरे हृदय से बाह्य रूप का मोह दूर हो गया। श्रीमद् प्रानन्दघनजी कहते हैं कि अध्यात्म तत्त्व में रमणता होने पर अभिमान नष्ट हो गया और आत्मा आत्मस्वरूप में प्रतीत हुआ ।। २ ।।
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(राग-सारंग) अब मेरे पति गति देव निरंजन । भटकू कहाँ-कहाँ सिर पटकू, कहा करूं जनरंजन ।।
।। अब० ।। १ ।। खंजन दृग दृग नांहि लगायु, चाहु न चित-चित अंजन । संजन घट अन्तर परमातम, सकल दुरित भय भंजन ।।
|| अब० ।। २ ॥