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श्री आनन्दघन पदावली-५६
मेरा आत्मा-लाल तो हृदय के भीतर ही निवास करता होने से कोई अन्तराय नहीं है। जिसका अन्तराय न हो उसका क्या मूल्य ? अर्थात् यह अमूल्य गिना जाता है। प्रात्मा रूपी लाल का तेज अपार होता है और वह हृदय से भिन्न नहीं होने से उसका जगत् में कोई मूल्यांकन नहीं कर सकता। प्रात्मा के अनन्त गुण हैं। अनन्त गुणों के धाम मात्मा का भला मूल्य कैसे लगाया जा सकता है ? समता कहती है कि आत्मा रूपी प्रियतम के साथ मेरा कोई अन्तर नहीं है। वह तो हृदय में ही निवास करता है । मेरा चेतन-लाल अमूल्य है । मैं उस पर न्यौछावर हूँ।२।।
- मैं निनिमेष दृष्टि से उनकी खोज़ में मार्ग को ऐसे देखती हूँ जैसे योगी ध्यान की मस्ती से समाधि में एकाग्रचित्त हो गया हो। समता कहती है कि हे स्वामी ! मैं आपके चरण-कमलों के दर्शनार्थ स्थिर-दृष्टि होकर देखती हैं जैसे योगी .समाधि में लीन होता है। मेरी दृष्टि आपकी ओर ही लगी हुई है। स्थिर दृष्टि से देखने के कारण मेरे नेत्रों में कुछ अपूर्व स्नेह का प्रवाह होता है ॥३॥
समता चेतन से, कहती है कि हे प्रियतम ! आपके अतिरिक्त मैं अपनी पीड़ा किसको बताऊँ? मेरी व्यथा कौन सुनने वाला है ? मैं किसके समक्ष अपना आँचल फैलाऊँ ? प्रियतम ! आपके दर्शन से ही मेरे मन की चंचलता दूर होगी अर्थात् पाप मेरे समीप होंगे तो मेरा मन शान्त रहेगा, मैं प्रानन्द-मग्न रहूँगी। हृदय की गुप्त बातें मैं अन्य किसे कहूँ? हे आत्मस्वामी! आपके अतिरिक्त अन्य धर्मास्तिकाय आदि जड़ द्रव्यों में मेरी व्यथा-कथा सुनने की शक्ति नहीं है और मुझे उनसे तनिक भी सुख प्राप्त होने वाला नहीं है। पुद्गल द्रव्य में सुख के भ्रम से अनेक जीव वहाँ परिभ्रमण करते रहते हैं, परन्तु वे उलटे दुःख प्राप्त करते हैं। चेतना कहती है कि मेरी तथा मेरे शुद्धात्मपति की एक ही जाति और एक स्वभाव है। अनादिकाल से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से मेरा तथा मेरे शुद्ध चेतन द्रव्य का अनन्त धर्म की अस्तिता एवं नास्तितामय स्वरूप समान है। अतः हे प्रियतम ! आपकी और मेरी भिन्नता होने वाली नहीं है ॥ ४ ॥
. समता की ये विरह-व्यथा युक्त बातें सुनकर उसका मित्र (अनुभव) विवेक सहित बोला, "हे समते ! तेरे प्रियतम प्रानन्दघन चेतन स्वामी अवश्य प्रायेंगे और स्वभाव रूपी शय्या (सेज) पर मानन्दरूपी रंगरेलियां मनायेंगे। तू मेरी बात पर विश्वास कर। तू