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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-६० चिन्ता छोड़ दे। तेरे प्रात्मस्वामी कुमति के वश में हैं तो भी उनके दिव्य चक्षु खुलेंगे और वे अपनी पत्नी और पर-पत्नी का भेद समझ जायेंगे।" उसे आश्वस्त किया कि अब प्रानन्द के समूह रूप तेरे
आत्मस्वामी तेरे घर आयेंगे और तुझे सहज आनन्द में तन्मय कर देंगे ॥५॥
( १६ )
(राग-गौड़ी) मिलापी आन मिलावो रे मेरे अनुभव मीठड़े मीत । चातक पिउ पिउ करे रे, पिउ मिलावे न आन । जीव पीवन पिउ पिउ करे प्यारे, जीउ निउ प्रान अयान ।।
मिलापी० ॥१॥ दुःखियारी निस-दिन रहूँ रे, फिरूं सब सुधि बुधि खोय। तन की मन की कवन लहे प्यारे, किसहि दिखावु रोय ।।
__ मिलापी० ॥ २ ॥ निसि अंधियारी मोहि हँसे रे, तारे दांत दिखाय । भादु कादु मई कीयउ प्यारे, अँसुप्रन धार बहाय ।।
- , मिलापी० ।। ३ ।। चित्त चाकी चिहूँ दिसि फिरे रे, प्रान मैदो करे पीस । अबला सु जोरावरी प्यारे, एती न कीजे ईस ।।
मिलापी० ॥ ४ ॥ आतुरता नहीं चातुरी रे, सुनी समता टुक बात । आनन्दघन प्रभु आइ मिलेंगे, आज घर हर भात ॥
मिलापी० ॥ ५॥
अर्थ-समता अपने प्रिय मित्र अनुभव को कहती है कि 'हे मेरे परम हितैषी मिलापी मित्र अनुभव ! तुम मुझे अपने प्रियतम (चेतन) से मिलायो। समता प्राप्त हो जाये तो भी अनुभव-ज्ञान के बिना आत्म-स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती। अनुभव-ज्ञान की प्राप्ति के लिए