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योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-५८
मित्त विवेक कहै हितु, समता सुनि बोला। आनन्दघन प्रभु आवसी, सेजड़ी रंग रोला ॥निश० ।।५।।
अर्थ-सुमति कहती है कि 'हे प्रियतम चेतन ! मैं रात-दिन आपकी प्रतीक्षा करती रहती हूँ, अब तो आप अपने घर पधारिये। आप विभावदशा त्याग कर स्वभाव-दशा में आयो। मेरे जैसी तो आपके लाखों हैं अर्थात् माया, ममता, रति, अरति, कुटिलता, वक्रता आदि लाखों विभाव-दशाएँ हैं, किन्तु मेरे तो आप अकेले ही प्रिय हैं, प्रेम के स्थान हैं। आत्मा के समान जगत् में आनन्द का स्थान अन्य कोई नहीं है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-इन नौ तत्त्वों में भी जीव प्रथम स्थान पर है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, काल और चेतनास्तिकाय-इन छह द्रव्यों में चेतन द्रव्य चेतना शक्ति के द्वारा समस्त द्रव्यों को जानता है और देखता है। अनेक प्रकार के पुण्यों एवं पापों का कर्ता प्रात्मा है। पुण्य एवं पाप का भोक्ता भी आत्मा है । धर्म-ध्यान आदि के द्वारा पुण्य. एवं पाप का क्षय-कर्ता भी प्रात्मा है। आत्मा के अपने घर में आने का मार्ग प्रथम, गुणस्थानक से है। कुल गुणस्थानक चौदह हैं :-१ मिथ्यात्व गुणस्थानक, २ सास्वादन गुणस्थानक, ३ मिश्र गुणस्थानक, ४ अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक, ५ देशविरति, ६ सर्वविरति, ७ अप्रमत्त, ८ निवृत्ति गुणस्थानक, ६ अनिवृत्ति गुणस्थानक, १० सूक्ष्मसंपराय, ११ उपशान्त गुणस्थानक, १२ क्षीण-मोह गुणस्थानक, १३ सयोगिकेवली गुरणस्थानक और १४ प्रयोगी केवली गुणस्थानक । ये चौदह गुणस्थानक मुक्ति के मार्ग हैं, मुक्ति रूपी राजप्रासाद के चौदह सोपान हैं। गुणस्थानकों में स्थित समता रूपी नारी अपने चेतन प्रियतम की गुणस्थानक रूपी मार्ग से प्रतीक्षा करती है और उन्हें अपने घर आने का निवेदन करती है ॥१॥
जौहरी अपने लालों का (माणिक आदि. रत्नों का) मूल्यांकन करता है कि मेरा लाल तो अमूल्य है, जिसका मूल्यांकन करना किसी जौहरी के बस की बात नहीं है। उसके समान तो कोई भी वस्तु नहीं है, फिर उसका क्या मूल्य लगाया जाये ? जौहरी लाल माणिक का मूल्य लगाता है परन्तु मेरे प्रात्म-पति लाल का तो मूल्य ही नहीं लगाया जा सकता, अतः वह अमूल्य गिना जाता है। जौहरी आत्म-माणिक का मूल्य कर ही नहीं सकता। लाल आदि को आभूषणं में लगाकर छाती पर धारण किया जाता है, हृदय के भीतर नहीं धारण किया जाता।