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श्री आनन्दघन पदावली-५७
है और स्वयं ही अपने गुणों का चोर बनता है। आत्मा स्वयं ही अपना उद्धार करता है। आत्मा स्वयं ही अपनी भूल के कारण चार गतियों में परिभ्रमण करता है और भ्रान्ति के कारण अपने गुणों का स्वयं चोर बनता है और अज्ञान रूपी भ्रान्ति के कारण अपने गुणों का स्वयं विनाशक बनकर स्वयं ही अपना शत्रु बनता है। हृदय में जब ज्ञान रूपी सूर्य का उदय हुआ तब उसे ज्ञात हुआ कि मैं स्वयं ही अपने गुणों का चोर था ॥२॥
ज्ञान रूपी सूर्य के उदय होने से हृदय-कमल खिल गया है, निर्मल हो गया है और विषय-वासना रूपी चन्द्रमा की किरणें मन्द हो गई हैं। आनन्दघन जी कहते हैं कि एक प्रानन्द स्वरूप चैतन्य सत्ता ही प्रिय लगती है और लाखों-करोड़ों सांसारिक प्रलोभन प्रानन्ददायक नहीं लगते । सूर्योदय होने पर चन्द्रमा की कान्ति फीकी हो जाती है, उसी प्रकार से ज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाशित होने पर विषय रूपी चन्द्रमा की कान्ति मलिन हो जाती है। तात्पर्य यह है कि अध्यात्म ज्ञानदशा प्रकट होने पर विषय-बुद्धि मन्द हो जाती है और विषय विषतुल्य प्रतीत होते हैं। अध्यात्म-ज्ञान होने पर, हृदय में हर्ष का पार नहीं रहता। श्रीमद् प्रानन्दघन जी कहते हैं कि अब तो ज्ञान रूपी सूर्य के उदय होने से भ्रान्ति दूर हो गई है जिससे आनन्द का समूहभूत आत्मा ही प्रिय लगता है। श्रीमद् को जगत् की कोई भी वस्तु प्रिय नहीं लगती थी। उन्हें तो केवल प्रात्मा ही प्रिय लगता था ।।३।।
(राग-मारू) निशदिम जोउं वाटड़ी, घर आवो रे ढोला । मुझ सरीखा तुझ लाख हैं, मेरे तू ही ममोला निश० ॥१॥ जव्हरी मोल करे लाल का, मेरा लाल अमोला। ज्याके पटतर को नहीं, उसका क्या मोला ? निश० ॥२॥ पंथ निहारत लोयणे, द्रग लागी अडोला । जोगी सुरति समाधि में, मानो ध्यान झकोला ॥निश० ॥३।। कौन सुण किसकू कहूँ, किस मांडु खोला । तेरे मुख दीठे टलै, मेरे मन का चोला ॥निश० ।।४।।