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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-५६ अमल कमल विकच भये भूतल, मंद विषय शशि कोर । आनन्दघन इक वल्लभ लागत, और न लाख करोर ।।मेरे० ॥३॥ अर्थ-मेरे हृदय में ज्ञान रूपी सूर्य का प्रकाश छा गया है। चेतन रूपी चकवा और चेतना रूपी चकवी के विरह से उत्पन्न करुण क्रन्दन अब सर्वथा शान्त हो गया है। चेतन स्वयं चेतना के बिना रह नहीं सकता और शुद्ध चेतना भी चेतन के बिना रह नहीं सकती। जब तक अज्ञान रूपी अन्धकार होता है तब तक अपने शुद्ध स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा सम्यक्सोहनीय, मिश्रमोहनीय एवं मिथ्यात्वमोहनीय, इस प्रकार कुल मिलाकर सात प्रकृति का क्षयोपशम भाव प्रकट होने पर क्षयोपशम सम्यक्त्व प्रकट होता है और इन सात प्रकृतियों का उपशम भाव होने पर उपशम सम्यक्त्व प्रकट होता है और इन सातों का सम्पूर्ण क्षय होने पर क्षायिक भाव से सम्यक्त्व प्रकट होता है। उपशम आदि सम्यक्त्व की प्राप्ति से सम्यग् ज्ञान की दशा प्रकट होती है और शुद्ध स्वरूप का निश्चय होता है। उस समय देह आदि पदार्थों में उत्पन्न अहं एवं ममत्व भाव नष्ट होता है और अपनी शुद्ध चेतना प्रकट होती है जिससे दोनों का विरह नष्ट होता है। शुद्ध चेतना एवं चेतन की विरह दशा में दुःख ही दुःख उत्पन्न होता है तथा सात प्रकार के भय उत्पन्न होते हैं। जन्म, जरा एवं मृत्यु के भय से हृदय धड़कने लगता है, तनिक भी शान्ति प्राप्त नहीं होती और अन्धे मनुष्य की तरह अगम्य स्थान में भी जाना पड़ता है। अनुभवी कहता है कि अब तो हृदय में ज्ञान-सूर्य का उदय होने से शुद्ध चेतना एवं चेतन का सम्बन्ध हुअा। दोनों का विरह नष्ट होने पर हृदय में आनन्द की लहरें उठने लगीं ॥१॥ चारों दिशाओं में विचक्षण स्वभाव में रमणस्वरूप प्रकाश फैल जाने से भ्रम रूपी अन्धकार नष्ट हो गया। अपनी चोरी मैं स्वयं ही जानता हूँ अतः मैं अन्य किसी को चोर नहीं कहता अर्थात् अपने आत्मिक गुणों का चोर मैं स्वयं ही था। किसी अन्य ने मेरे ज्ञान आदि गुणों की चोरी नहीं की थी। इस बात का अब निश्चय हो जाने के कारण मैं किसी अन्य को चोर ठहरा कर उसे दोष नहीं देता। प्रात्मा अनादि काल से अज्ञान के कारण जड़ पदार्थों में अहं एवं ममत्व भाव रखता है। जड़ वस्तु में इष्टत्व एवं अनिष्टत्व रूप भ्रान्ति के कारण व्यर्थ सुख एवं दुःख की कल्पना करके मूर्ख जीव अपने प्रात्मा को जंजाल में फंसाता है। अज्ञान दशा में आत्मा स्वयं ही गलत मार्ग पर चलने से अपना शत्रु बनता
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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