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श्री श्रानन्दघन पदावली - ५५
मेरी सास एक क्षण का भी विश्वास नहीं करती और निगोड़ी ननद प्रातः काल से ही मुझसे झगड़ना प्रारम्भ कर देती है अर्थात् ज्ञानी गुरुजन कहते हैं कि हे सुमति ! आयु का पलभर का भी विश्वास नहीं है। तू पूर्णतः प्रयास करके चेतन से मिल क्यों नहीं लेती ? समवयस्क भी प्रातः काल में यही स्मरण कराती हैं कि प्रतिदिन प्रातःकाल के साथ जीवन का एक दिन कम होता रहता है । इस दुर्लभ मनुष्य भव में ही यदि तू चेतन से नहीं मिल सकी तो फिर कहाँ मिलाप होगा ? अन्य हकीम, वैद्य मेरे तन का ताप मिटा नहीं सकते । अतिशय आनन्दमय मेरे स्वामी चेतन के मिलाप से ही मेरे तन का ताप मिटेगा क्योंकि उनके मिलाप रूपी अमृतवृष्टि के अतिरिक्त मेरे तन की तपन किसी वैद्य-हकीम की औषधि से मिटने वाली नहीं है ।
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पाठान्तर से यह भाव है कि शुद्ध चेतना अपनी सखी श्रद्धा को कहती है कि हे बहिनं ! कुमति क्षणभर के लिए भी मेरा विश्वास नहीं करती। वह मेरे प्रीतम को क्षणभर भी अलग नहीं होने देती क्योंकि वह जानती है कि यदि मैं आत्मा को क्षणभर भी अलग करूंगी तो मेरे समस्त प्रयत्न निष्फल हो जायेंगे और वह सुमति के पास चला जायेगा । इस कारण से वह द्वेष के कारण मेरे प्रीतम को भ्रमित करती है। उसने प्रातः काल में मेरे साथ झगड़ा किया, मुझे धमकाया फिर भी मेरे प्रीतम कुछ नहीं बोले 1 अतः मुझे अत्यन्त दु:ख हुआ जिससे मेरी देह इतनी तप्त हो गई कि कोई भी वैद्य उस ताप को मिटाने में असमर्थ है । अब तो केवल एक ही उपाय है कि मेरे आनन्द के समूहभूत आत्मस्वामी अनुभव कृपा-दृष्टि रूपी अमृत मेरी देह की तपन दूर हो और मुझे शान्ति प्राप्त हो । की यदि मुझ पर कृपा हो तो मुझे कोई संतप्त नहीं कर सकता । प्रीतम की प्रमृतमय दृष्टि की वृष्टि होते ही सहज आनन्द उत्पन्न हो सकता है। संखि ! मैं तुझे अधिक क्या कहूँ ? तू तो चतुर है, सब कुछ समझती है ॥ ३॥
की वृष्टि करें तो
मेरे श्रात्म - स्वामी
मेरे
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( राग सारंग )
मेरे घट ज्ञान भानु भयो भोर ।
चेतन चकवा चेतना चकवो, भागो विरह को सोर || मेरे० ।।१।। फैली चिहुं दिसि चतुर भाव रुचि, मिट्यो भरम तम जोर । आपकी चोरी आप ही जानत, और कहत न चोर || मेरे० ||२||