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योगिराज श्रीमद् आनन्दधनजी एवं उनका काव्य-५४
पट भूषण तन भौकन उठे, भावे न चौंकी जराउँ जरी री। सिव कमला पाली सुख न उपावत, कौन गिनत नारी अमरी री॥
पिया० ॥२॥ सास विसास उसास न राखे, नणद निगोरी भोर लरी री। और तबीब न तपत बुझावै, प्रानन्दघन पीयूष झरी री ॥
. .पिया० ॥ ३ ॥
अर्थ-समता कह रही है-प्राणप्यारे चेतन के बिना मैं रातदिन संतप्त रहती हैं। छोटी-बड़ी सबकी मर्यादा-लज्जा त्याग कर मेरी
आँखें द्वार से कभी हटती ही नहीं। मैं प्रीतम (चेतन) की प्रतीक्षा में द्वार की ओर टकटकी लगाये रहती हूँ। मैं अपने प्रियतम की निरन्तर प्रतीक्षा करती है कि मेरे स्वामी कब मेरे घर आयें। कुमति उन्हें भ्रमित करके अपने प्रमत्त रूप घर में, ले जाती है और उन्हें मेरे द्वारपाने नहीं देती। मैं उन्हें अपने घर में लाने के लिए अनेक युक्तियाँ करती हैं परन्तु कुमति मेरे सब प्रयत्न निरर्थक कर देती है। मैं चाहती हूँ कि मेरे स्वामी मेरे घर आयें और इन्हीं विचारों में मैं प्रतिपल रात-दिन संतप्त रहती हैं। मुझे अपना कोई दोष प्रतीत नहीं होता, फिर भी मेरे आत्मरूप स्वामी कुमति के वश में हो गये हैं, जिससे मैं प्रत्यन्त दुःखी हूँ॥१॥
__इस विरह-दशा में वस्त्रों, आभूषणों और देह से. भी मुझे सन्ताप उत्पन्न होता है। मुझे बहुमूल्य जड़ाव वाले आभूषण चौंकी प्रादि भी अच्छे नहीं लगते। हे सखी श्रद्धा ! मुझे मोक्ष-लक्ष्मी से भी चैन नहीं मिला तो फिर स्वर्ग की देवाङ्गनाएं तो भला किस गिनती में हैं ? उनकी इच्छा कौन करेगा? चेतना कहती है कि मुझे न तो स्वर्ग चाहिए, न मोक्ष चाहिए; मुझे तो अपने स्वामी शुद्धात्मा चैतन्य देव से मिलने की ही चाह है। प्रीतम के बिना कहीं भी चैन नहीं है। मेरे शुद्धात्म स्वामी के बिना मुझे कोई भी सुशोभित नहीं कर सकता। जब मेरे शुद्धात्म पति ही मेरे पास नहीं हों तो मैं अपने वस्त्रों, आभूषणों की शोभा किसे बताऊँ ? उलटे वस्त्र-आभूषण मुझ विरहिणी के दुःख में अभिवृद्धि करते हैं। शुद्धात्मपति के विरह में सुख के समस्त साधन भी मुझे तनिक भी अच्छे नहीं लगते ॥ २ ॥