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श्री श्रानन्दघन पदावली - ५३
शुद्ध चेतना कहती है कि मन मिलने वाले स्नेही से जो भेद रखता है, कपट करता है, वह मनुष्य नहीं है; वह हृदयहीन पशु तुल्य है । श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि मन मिले बिना तो कोई शिष्य भी समीप नहीं आता । हे आत्म - स्वामी ! आपके साथ मेरा मन मिला है और आप मुझे मिलते नहीं, उसमें आपकी क्या शोभा है ? मन मिलने के पश्चात् छोटा बालक भी अन्तर नहीं रखता । आप तीन के जगत् स्वामी होकर मन मिलने के पश्चात् मुझे जो नहीं मिलते, यह श्रापका व्यवहार आपको शोभा नहीं देता । आपके आगमन से तीनों लोकों में आपका यश फैलेगा, जन्म-जरा-मृत्यु की उपाधि दूर होगी और आपका और मेरा वियोग दूर होगा । शुद्ध चेतना कहती है कि मेरी ओर आपका प्रयाण ं होते ही दसवें गुणस्थानक के प्रदेश में मोहनीय का नाश होगा और बारहवें गुणस्थानक में आते ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अन्तर कर्मरूप मैल का नाश होगा । मेरे घर में पदार्पण करते ही आपकी अनन्तगुनी शक्ति प्रकट होगी, अतः आप अब अन्तर न रखकर शीघ्र प्राकर मुझे मिलो । भाव यह है कि शुद्ध चेतना कहती है कि जिससे मेरा मन मिल जाये, ऐसा मन-मिलापी प्रिय मुझे कब मिलेगा अर्थात् मुझे शुद्ध स्वरूप प्रात्म-दर्शन कब होगा ?
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इसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति नहीं मिले तब तक
विशेष - श्रीमद् श्रानन्दघनजी को कदाचित् किसी ने पूछा हो कि प्राप किसी को अपना शिष्य बनायेंगे अथवा नहीं ? उस समय श्रीमद् को इस पद की रचना करनी पड़ी हो जब तक मन की इच्छा के अनुसार कोई योग्य योगिराज श्री आनन्दघनजी किसी को दीक्षित करना नहीं चाहते थे । शिष्य बनाकर तो उसे योग्य बनाना आवश्यक हो जाता है और शिष्य को भी गुरु के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखना आवश्यक होता है । श्रद्धा, भक्ति, प्रेम हो तो ही सम्बन्ध फलदायक होता है ।
परस्पर
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( राग-तोड़ी)
पिया विण निस दिन भूरू खरी री ।
हुड़ी बड़ो की कानि मिटाई, द्वार ते आँखें कब न टरी री ॥
पिया० ।। १ ।।