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श्री आनन्दघन पदावली-३२६
अर्थ-भावार्थः-आगमों के परमार्थ को धारण करने वाले अर्थात जिनेश्वर भगवान द्वारा कथित आचारांग आदि शास्त्रों के ज्ञाता, संवरक्रिया करने वाले, मोक्ष-मार्ग सम्प्रदाय के अनुयायी वीतराग देव श्री शान्तिनाथ भगवान की परम्परा के रक्षक सदा निष्कपट, पवित्र, आत्मानुभव के आधार रूप सद्गुरु को सेवा हो शान्ति-स्वरूप प्राप्त करने का उत्कृष्ट मार्ग है ॥ ४ ॥
. विवेचनः-इस पद्य में श्रद्धा अर्थात् सम्यक्त्व का महत्त्व एवं लक्षरण बताया गया है। जीव अनन्त काल तक स्वच्छन्द चले तो भी अपने आप ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु ज्ञानी की आज्ञा का आराधक अन्तमुहूर्त में ही केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। अतः ज्ञानी की प्राज्ञा का अवलम्बन हितकर है ।। ४ ।।
अर्थ-भावार्थः--समस्त अन्य जंजालों को त्याग कर जो शुद्ध आत्मस्वरूप का अवलम्बन करते हैं और समस्त तामसी वृत्तियों जैसे कषाय आदि राग-द्वेष का त्याग करके जो मैत्री, करुणा, प्रमोद आदि सात्त्विक वृत्तियों को ग्रहण करते हैं वे ही शान्ति-स्वरूप को प्राप्त करने वाले सद्गुरु हैं ।। ५.
अर्य-भावार्थः-गुरु का उपदेश कैसा होना चाहिए यह बताते हए कहा है कि फल के प्रति सन्देह जिसमें नहीं है अर्थात् जो निश्चय रूप से मुक्ति-दायक है, जिसके उपदेश यथार्थ अर्थ के सूचक हैं, जिसमें सकल
श्री शान्तिनाथ भगवान के बताये हुए मार्ग का अनुकरण करने वाले
श्रीमद् आनन्दघन जी के चरणों में शत-शत नमन !
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मैसर्स गौतमचन्द दिनेशचन्द जैन ४
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