________________
योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३२८
शान्ति सरूप संक्षेप थी, कह्यो निज पर रूप रे । मागम मांहि विस्तार घणो, कह्यो शान्ति जिन भूप रे। . .
शान्ति० ।। १४ ।। शान्ति सरूप एम भावशे, धरी शुद्ध प्रणिधान रे । 'प्रानन्दघन' पद पामशे, ते लहशे बहुमान रे ।
____ शान्ति० ।। १५ ।।
शब्दार्थः-त्रिभुवन राय - तीनों लोकों के स्वामी। परखाय =पहचामना । प्रतिभास=स्वरूप। अवितत्थ =यथार्थ । सद्दहे माने। सम्प्रदायी= सम्प्रदाय-रक्षक। अवंचक =निष्कपट । सुचि = पवित्र । अवर=अन्य । साल - सार, निष्कर्ष । विसंवाद=संशय । प्रतिषेध =निषेध । त्रिण=घास । परिकर परिवार। अमित अनन्त । प्रणिधान=समाधि, एकाग्रता।
___ अर्थ-भावार्थः -- हे शान्तिनाथ प्रभो! हे तीन लोकों के राजेश्वर ! मेरी एक विनय सुनिये। मैं आपके शान्त स्वरूप को कैसे पहचान सकता हूँ! आप कृपा करके मुझे यह सब बताइये ।। १ ।।
विवेचनः -- यह एक भावनात्मक प्रश्न किया गया है कि आप मुझे इतना बतायें कि मैं आपका शान्त स्वरूप कैसे जान सकता हूँ।
अर्थ-भावार्थः- इस द्वितीय पद्यांश में उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि हे आत्मा! तू धन्य है जिसे ऐसा प्रश्न करने का अवसर प्राप्त हुआ। तू धैर्य धारण करके सुन । जैसा शान्ति स्वरूप मुझे प्रतीत हुआ है, वैसा ही यहाँ कहा जा रहा है ।। २ ।।
विवेचनः -इस पद्यांश में मानों स्वयं शान्तिनाथ प्रभु ही उत्तर देते हैं, अथवा यह कह सकते हैं कि ज्ञान चेतना कहती है ।। २ ।
अर्थ-भावार्थः--श्री जिनेश्वर भगवान ने जिन भावों को विशेष शुद्ध और जिन भावों को अशुद्ध कहा है, उन्हें उसी रूप में जानकर यथार्थ जानकर उन पर श्रद्धा रखना ही शान्ति-पद प्राप्ति की प्रथम सेवा है ।। ३ ।।
विवेचनः--शान्ति पद प्राप्त करने के लिए प्रथम तो दृढ़ श्रद्धा की आवश्यकता है ॥ ३ ॥