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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-४०
पदार्थों की प्राप्ति शीघ्र होती है। परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति के लिए सद्गुणों को प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। आत्मा में अनन्त ज्ञान आदि गुण हैं। माँगने से कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं है । सद्गुण प्राप्त करने से ही परमात्म-पद की प्राप्ति होगी। अतः सद्गुण प्राप्त करने का प्रयत्न करना आवश्यक है। मुझे यह भी पता नहीं है कि कौनसी बात किसको शान्त कर देगी और कौनसा व्यवहार उत्तेजित करेगा? ॥३॥
न तो मुझे सामान्य ज्ञान है और न विशेष ज्ञान है । तथा न मुझे भजन-कीर्तन की रीति का ही ज्ञान है। आनन्दघन जी कहते हैं कि मैं तो केवल प्रानन्दस्वरूप गुणों के निधान परमात्मा के घर के द्वार पर उनके गुणों का स्मरण करता हूँ। राग-द्वेष रहित बनना, इच्छा रहित बनना ही भगवान का द्वार है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवल ज्ञान इन पाँच ज्ञानों के इकावन भेद होते हैं। मंतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान में विज्ञान का समावेश होता है। आनन्दघन जी कहते हैं कि जितने प्रमाण में ज्ञान और विज्ञान का ज्ञान होना चाहिये उतना मैं नहीं जानता। अपनी लघुता प्रदर्शित करने के लिए प्रानन्दघन जी महाराज कहते हैं कि मैं भगवान का स्मरण करने की भी परिपूर्णता नहीं जानता। प्रभु-नाम का स्मरण करते हुए ध्याता, ध्येय एवं ध्यान की एकता हो जाती है। वहाँ आत्मा एवं परमात्मा को भिन्नता प्रतीत नहीं होती। विकल्प एवं संकल्प का नाश हो जाता है ऐसे भजन को मैं नहीं जानता। भगवान के स्मरण से प्रात्मा परमात्म-स्वरूप बन जाती है, मनोवत्ति सचमुच परमात्ममय हो जाती है। इस प्रकार प्रभु का ज्ञान भी मैं नहीं जानता।
तात्पर्य यह है कि मांगने वाले में भी योग्यता होनी चाहिए। भगवान तो अन्तर्यामी हैं। योग्यता आने पर प्राप्त होने में विलम्ब नहीं लगता। अतः मैं प्रभु से याचना क्या करूँ ? योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी ने निःस्वार्थ भाव से प्रभु का स्मरण करते हुए अपने आचरण के द्वारा कार्य करने का मार्गदर्शन किया है ॥४॥
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(राग-सारंग) अनुभव हम तो रावरी दासी । प्राइ कहाँ ते माया ममता, जानून कहाँ की वासी ॥अनु०॥१॥