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श्री आनन्दघन पदावली-४६
रीझि पर वाके. संग चेतन, तुम क्यू रहत उदासी । वरज्यो न जाइ एकंत कंत को, लोक में होवत हाँसी ।।अनु०॥२॥ समझत नाहीं निठुर पति एती, पल इक जात छः मासी । अानन्दघन प्रभु को घर समता, अटकली और लखासी॥अनु०॥३।।
अर्थ-समता कहती है कि हे अनुभव ! मैं प्रात्मराजा की दासी हैं। हे अनुभव ! यह तो बतायो प्रात्मा के साथ जो माया, ममता नामक स्त्रियाँ हैं वे कहाँ से आईं ? मैं तो इतना भी नहीं जानती कि ये माया-ममता किस देश की निवासिनी हैं ? माया समस्त विश्व के प्राणियों को वश में करती है। यह अपने सामर्थ्य से जीवों को चारों गतियों में भटकाती है। मनुष्य अपने सुख के लिए माया का सेवन करते हैं परन्तु उसके कारण वे दुःखों में फंसते हैं। माया मनुष्यों को अपनी इच्छानुसार नचाती है। ममता भी मोहराजा की पुत्री है। संसार के समस्त जीव ममता के प्रपंच में फंसे हुए हैं ॥१॥
अनुभव कहता है कि चेतन माया-ममता पर मुग्ध हैं, अतः वे उसी के साथ रहते हैं। उन्हें उनके साथ रहने से प्रानन्द की प्राप्ति होती है । इससे हे समता! तुम उदास क्यों रहतो हो? तुम अपना स्वभाव क्यों छोड़ती हो? अनुभव की बात सुनकर समता कहती है कि 'हे अनुभव !' मैं आत्म-पति का एकान्त सम्बन्ध त्याग नहीं सकती। मैं पतिव्रता हूँ। में राग-द्वेष आदि दुष्टों को जो मेरे पति को भव-भव में अनन्त दुःख देने वाले हैं, उन्हें नहीं चाहती। मैं उनकी संगति भी नहीं करती। जैसे हंस के बिना हंसिनी जी नहीं सकती वैसे ही मैं अपने पति के बिना जीवित नहीं रह सकती। वे मुझे छोड़कर माया एवं ममता के साथ रहते हैं, जिससे लोगों में मेरी तथा उनकी हँसी होती है। मेरी इच्छा होती है कि मैं पृथ्वी में समा जाऊँ। हे अनुभव ! मुझे अपने पति के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता। लोगों में हँसी होने से मुझे अत्यन्त लज्जा पाती है। मेरा और मेरे चेतन-स्वामी का एकान्त सम्बन्ध है। एकान्त सम्बन्ध होते हुए भी मेरे स्वामिनाथ ममता के संग में रंग गये हैं जिससे हम दोनों की हँसी हो रही है ॥२॥
- समता कहती है कि हे अनुभव ! मेरे निष्ठुर पति इन बातों को समझ नहीं पा रहे हैं। इस कारण मेरा एक-एक पल छह माह के समान व्यतीत हो रहा है। वे माया एवं ममता रूप कुलटा स्त्रियों के फन्दे में