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योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-५०
फंस कर यश, धन, प्रतिष्ठा, सुख और वीर्य आदि समस्त शक्तियों का नाश कर रहे हैं। वे मेरी बात पर तनिक भी ध्यान नहीं देते । आनन्दघनजी महाराज कहते हैं कि आनन्द के समूह रूप आत्मा की वास्तविक पत्नी समता है। अन्य सब मिथ्या है। अतः फिर समता के आनन्द का पार न रहा । प्रात्मा ने जब समता को अपना जान लिया तब वह ममता की ओर कैसे प्राकर्षित हो सकता है ? ।
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(राग-प्रासावरी) ... अवधू नाम हमारा राखे, सो परम महारस चाखे ।। ना हम पुरुष ना हम नारी, वरन न भात हमारी । जाति न पाँति न साधु न साधक, ना हम लघु ना भारी ।।
- अवधू०॥१॥ ना हम ताते ना हम सीरे, ना हम दीरघ ना छोटा। न हम भाई, न हम भगिनी, ना हम बाप न ढोटा ॥
अवधू०॥२॥ ना हम मनसा ना हम सबदा, ना हम तन की धरणी। न हम भेष भेषधर नाहीं, ना हम करता करणी ॥
. अवधू०॥३॥ न हम दरसन ना हम फरसन, रस न गंध कछु नाहीं । आनन्दघन चेतनमय मूरति, सेवक जन बलि जाहि ।।
अवधू०।।४।। अर्थ-श्रीमद् प्रानन्दघन जी सोचते हैं कि मेरा तो कोई शिष्यसाधु भी नहीं है, तब मेरा नाम कौन रखेगा? मुझे तो कोई विरला ही पहचान सकेगा। निश्चय नय से हमारा अवधूत स्वरूप है, जो संसार की बाह्य दृष्टि में नहीं आ सकता। हमारे मूल स्वरूप को पहचान कर जो हमारा नाम रखता है, वह परम आनन्द रूप महारस का आस्वादन करता है। मुझे देह समझने वाले तो अनेक विपत्तियाँ सहन करेंगे। मुझे आत्मा समझने वाले इन समस्त विपत्तियों से मुक्त रहेंगे, क्योंकि प्रात्मा आनन्द स्वरूप है, अविनाशी है तथा अनन्त शक्तिसम्पन्न है.।