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________________ श्री आनन्दघन पदावली-२६५ ज्ञान रूपी वसन्त प्राप्त होने पर भी अनेक प्रकार के आत्मिक धर्म की सुरुचि रूपी लता फलती-फूलती है और उस समय उन लताओं के मण्डप-तले आत्मा समता के साथ बैठकर सहज सुख की क्रीड़ा करती है। आत्मा की वाणी रूपी कोयल सचमुच उस समय सुमधुर गीत गाती है जिससे श्रोता आनन्द-विभोर हो जाते हैं। देवता, मनुष्य एवं पशु भी प्रभु की ज्ञानरूपी वसन्त ऋतु का लाभ लेकर आनन्दरसरूप हो जाते हैं। आत्मज्ञान होने पर आत्मा की शुद्धधर्म की रुचियाँ रूपी अनेक बेलें फैलने और फलने लगती हैं जिससे आत्मा में आनन्द का पार नहीं रहता। श्रीमद् आनन्दघनजी ने आन्तरिक वसन्त ऋतु का सुन्दर वर्णन किया है। आत्मा का स्वरूप ज्ञान प्राप्त करके देवता, मनुष्य एवं पशु सहजानन्द को प्राप्त करते हैं। मनुष्य को यदि आत्मा में वसन्त ऋतु प्रकट करनी हो तो जैनागमों का अध्ययन करना चाहिए। जब भगवान की वाणी अन्तर में उतरती है तब वसन्त ऋतु खिलने लगती है। आत्मा के ज्ञान-वसन्त में अन्तरंग धर्मरुचि की वृद्धि होती रहती है, जिससे प्रात्मा पुष्ट होती है। प्रात्मा उपशम रस के सरोवर में कीड़ा करती रहती है और वैर, क्रोध, क्लेश आदि की मलिनता नष्ट करती है। (३१) (राग-कल्याण) तज मन कुमता कुटिल को संग । जाके संग कुबुद्धि उपजत है, पडत भजन में भंग । तज० ।। १ ।। कौवे कू क्या कपूर चुगावत, श्वान ही नहावत गंग । खर कू कीनो अरगजा लेपन, मरकट भूषण अंग । तज० ।। २ ॥ कहा भयो पय पान पिलावत, विषहु न तजत भुजंग । प्रानन्दघन प्रभु काली कांबलिया, चढ़त न दूजो रंग । तज० ॥ ३ ॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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