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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २६६
टिप्पणी- श्री कापड़िया जी तथा श्री विश्वनाथप्रसाद जी ने इस पद को 'सूरदास' का माना है। सचमुच, यह पद महाकवि सूरदास का ही है।
अर्थ - भावार्थ-विवेचन - पद में कुमति, कुटिल मनुष्यों की संगति का परित्याग करने की हित- शिक्षा दी है। कुमति, कुटिल मनुष्यों की संगति से बालजीव धर्म से भ्रष्ट होते हैं । चाहे जैसे श्रेष्ठ मनुष्य की भी कुसंगति से बुद्धि बिगड़ती है । दुर्जनों की संगति से महान् अनर्थ होता है, अत: जैनशास्त्रों में कुटिल मनुष्यों की संगति का त्याग करने की शिक्षा दी गई है । श्रीमद् श्रानन्दघन जी कहते हैं कि काले कम्बल पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता । कुटिल मनुष्यों के मन पर सन्तों के उपदेश का प्रभाव नहीं पड़ता । काले कम्बल की तरह जिन मनुष्यों के हृदय पाप कर्मों से काले हो गये हैं उन पर धर्म का श्वेत रंग नहीं चढ़ सकता । जो दूरभव्य एवं अभव्य प्राणी हैं उन्हें धर्म की बातें प्रिय नहीं लगतीं । अतः अध्यात्मज्ञानियों को चाहिए कि वे नास्तिकों एवं शठ मनुष्यों से दूर रहें |
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प्रिय माहरो जोसी, हु पोय री जोसरण, कोई पडोसण पूछो जोस । जे पूछते सगलो कहिसो, सो सौ रहै न रहै कोई सोस ।
प्रिय० ।। १ ।।
तस घन सहज सुभाव विचारे, ग्रह युति दृष्टि विचारौ तोस । शशि दिशि काल कला बलधारे, तत्त्वविचारि मनि नाणं रोस । प्रिय ० ० ।। २ ।। सौ निमित सुर विद्या साधै, जीव धातु मूल फल पोस । सेवा पूजा विधि प्राराधै, परगासै 'आनन्दघन' कोस । प्रिय० ।। ३ ।।
शब्दार्थ - माहरो = मेरा, जोसी = ज्योतिषी, जोसण = ज्योतिषी की पत्नी, जोस = ग्रह - फल, सगलो = सम्पूर्ण, सोसौ = संशय, सोस = चिन्ता, तोस = सन्तोष, मनि = मन में, ना = न लावे, रोस क्रोध, सौंग = शकुन, सुरविद्याः = स्वर विज्ञान, कोस = कोष, खजाना ।