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- श्री आनन्दघन पदावली-२६७ :,
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( ३३ ) द्रग्यौ जु महामोह दावानल, उबरू पार ब्रह्म की अोट । कृपा कटाक्ष सुधा रस धारा, बंचे विसम फाल की चोट ।
द० ॥ १ ॥ अगज अनेक करी जीय बांधी, दूतर दरप दुरित की पोट । चरन सरन पावत तन-मन की, निकसि गई अनादि की खोट ।
द० ।। २ ॥ अब तो. गहै भाग बड पायौ, परमारथ सुनाव दृढ़ कोट । निरमल मांनि सांच मेरी कहो, प्रानन्दघन धन सादा अतोट ।
द० ।। ३ ।।
शब्दार्थ --- दग्यौ प्रज्वलित हा, उबरू =मुक्त होऊ, अोट= प्राड, शरण, · बचै बचना, अगज मूर्खता, दूतर दुस्तर, कठिन, दरप=गर्व, दुरित = पाप, पोट=गठरी, अतोट= अटूट।
कुण पागल कहुँ खाटु मीठु, रामसनेही नु मुखड़, न दीर्छ। मन विसरामी नु मुखकुन दीर्छ, अंतरजामी नु अंतर जामीनु । जे दीठा ते लागइ अनीठा, मन मान्या विरण किम कहुं मीठा ।
. धरणी अगास बिचै नहीं ईठा ।। कूरण० ।। १ ॥ ‘जोतां जोतां जगत विशेषु, उण उणिहारइ कोइ न देखु ।
अणसमझ्यु किम मांडु लेखु । कुण० ।। २ ।। कोहना कोहना घर में जावु, कोहना-कोहना नित गुण गावु ।
जो प्रानन्दघन दरसरण पावु।। कुण० ।। ३ ।। शब्दार्थ-पागल-आगे। दीर्छ- देखा। अनीठा- अनिष्ट, अप्रिय। धरणी=पृथ्वी। ईठा=इष्ट, प्रिय। विशेषु =परीक्षा की। उण=उस । “उणिहारइ अनुसार, समान। कोहना कोहना=किस किसके।