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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३७० अर्थः-श्रीमद् आनन्दघनजी का मन कहता है कि अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर विगत स्वरूपी हैं अर्थात् अरूपी हैं। अतः उनके स्वरूप का मैं कैसे चिन्तन (ध्यान) कर सकता हूँ? क्योंकि आकार रहित का आलम्बन के बिना ध्यान सम्भव नहीं है। वे तो अविकारी तथा अरूपी अर्थः -आत्मा आत्मस्वभाव में रमण करता है। आत्मा के दो भेद हैं-साकार परमात्मा तथा निराकार परमात्मा। साकार परमात्मा के दो भेद हैं-तीर्थंकर केवली भगवान और सामान्य केवली भगवान । साकार परमात्मा उत्कृष्ट असंख्य हैं और निराकार परमात्मा (सिद्ध भगवान) भेद रहित हैं, अनन्त हैं ॥ २ ॥ विवेचनः-जैन आगमों में तीर्थंकरों की संख्या जघन्य बीस और उत्कृष्ट १७० है तथा सामान्य केवलियों की संख्या जघन्य दो करोड़ और उत्कृष्ट नौ करोड़ कही है। यह गणना असंख्या संख्या का ही एक भाग है, अतः साकार परमात्मा को असंख्य कहने में कोई दोष नहीं है। .. अर्थः-निराकार परमात्मा के दो भेद हैं-१. सूक्ष्म नामकर्मी निराकार परमात्मा और २. निर्गतकर्मी निराकार परमात्मा । सूक्ष्म नामकर्मी निराकार परमात्मा के अनन्त भेद हैं। निर्गतकर्मी निराकार परमात्मा अभेदी एवं अनन्त हैं ।। ३ ।। अर्थः-जब प्रात्मा का कोई आकार नहीं है, रूप नहीं है तब उसके बन्ध भी नहीं हो सकता। वह अबंध माना जायेगा। जब कर्म-बंध नहीं होगा तो मोक्ष भी नहीं होगा। बंध एवं मोक्ष के बिना निर्गत-कर्मी निराकार परमात्मा की 'सादि अनन्त' से संगति कैसे हो सकती है ॥ ४ ॥ अर्थः-जब द्रव्य ही नहीं है तो उसकी सत्ता कैसी? द्रव्य के बिना उसकी सत्ता नहीं होती। सत्ता के बिना उसका रूप कैसा? रूप के बिना सिद्ध अनन्त क्यों? तब मैं अकल स्वरूप का, अमूर्त का ध्यान कैसे करूँ ॥५॥ अर्थः -भगवान आगम के माध्यम से उत्तर देते हैं कि मेरी आत्मा का परिणमन तथा परिणमित आत्मा ये दोनों भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं। तदाकार हुए बिना मेरे स्वरूप का ध्यान प्रतिषिद्ध है, वजित है। तदाकार होकर ही मेरे स्वरूप का ध्यान विधिवत् है ।। ६ ।। .
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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