________________
श्री आनन्दघन पदावली - ३७१
अर्थ:- : - अतः योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि इस पंचम काल में तो तदाकार होकर ध्यान करना असम्भव है । अत: जब मैं अन्तिम भव ग्रहण करके आपके शुद्ध स्वरूप का ध्यान करूंगा तब आत्म-रूप परमात्मा-पद को प्राप्त करूंगा ॥ ७ ॥
श्री महावीर जिन स्तवन
वीर जिनेश्वर परमेश्वर जयो, जग-जीवन जिन भूप । अनुभव मित्ते रे चित्ते हितकारी, दाख्युं तास स्वरूप । वीर० ॥ १ ॥
जेह अगोचर मानस वचन ने अनुभव मित्ते रें व्यक्ति शंकित शुं,
तेह अतीन्द्रिय रूप । भाख्यु तास स्वरूप ।
वीर० ।। २ ।।
नय निक्षेपे रे जेह न जारिणये, नवि जिहां प्रसरे प्रमाण । शुद्ध स्वरूपे रे ते ब्रह्म दाखवे, केवल अनुभव भारण । वीर० ० ।। ३ ।। अखंड अगोचर अनुभव अर्थ नो, कोरण कही जणे रे भेद | सहज विशुद्धये रे अनुभव नयन ए शास्त्रेते सघलो रे खेद । वीर० ॥ ४ ॥
न लहे प्रगोचर बात |
दिशि देखाडी शास्त्र सवि रहे, कारज साधक बाधक रहित जे अनुभव मित्त विख्यात ।
,
अहो चतुराई रे अनुभव मित्तनी, अहो तस प्रीत अंतरजामी स्वामी समीप ते, राखो मित्र शुं
वीर० ।। ५ ।।
प्रतीत ।
रीत ।
वीर० ॥ ६ ॥
अनुभव संगे रे रंगे प्रभु मल्या, सफल फल्यां सवि काज । निजपद सेवक जे ते अनुभव रे, 'श्रानन्दघन' महाराज ।
वीर० ॥ ७ ॥