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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३७२
टिप्पणीः-श्री ज्ञानसारजी के उल्लेख के अनुसार यह स्तवन भी श्री देवचन्दजी संवेगी द्वारा रचित है। इसे श्री मंगलजी शास्त्री की पुस्तक से लिया गया है।
शब्दार्थः-दाख्यु = बताया गया। अगोचर=जिसे नहीं देखा जा सके । भाख्यु कहा गया। तास=उनका। भाण=सूर्य ।
प्रथः-जगत् के जीवन, समस्त केवली भगवानों के भूप तथा परमेश्वर श्री महावीर भगवान की जय हो। अनुभव-मित्र ने ऐसे महावीर भगवान का स्वरूप सबके चित्त के लिए हितकारी बताया है ॥ १॥
अर्थः-जो मन और वचन से अगोचर है वह अतीन्द्रिय रूप अनुभव मित्र ही जान सकता है । उसने ही उनका स्वरूप बताया है ।। २ ।।
अर्थः --जो नय-निक्षेपों से नहीं जाना जाता है अर्थात जो सात नयों-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत तथा चार निक्षेपों-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से नहीं जाना जाता, जहाँ परोक्ष ज्ञान भी काम नहीं आता ऐसे.शुद्ध स्वरूप परमात्मा को केवल अनुभव-ज्ञान रूपी सूर्य ही बताने में सक्षम है, क्योंकि यह रूप निरंजन, निराकार, निर्विकल्प, निरुपाधि है अतः वाणी एवं परोक्ष प्रमाण आदि भी वहाँ निरुपयोगी हैं ।। ३ ।।
अर्थः-ऐसे अखण्ड, अगोचर, अनुभव-गम्य परमात्मा के स्वरूप का भेद कौन बता सकता है ? अर्थात् कोई नहीं बता सकता। यह तो सहज शुद्धि से ही अनुभव-नेत्रों से ही जाना जाता है। समस्त शास्त्र भी उस स्वरूप को बताने में असमर्थ हैं ॥ ४ ॥
अर्थः-समस्त शास्त्र तो केवल दिशा-दर्शन करके ही रह जाते हैं। वे उस अगोचर रूप को स्पष्ट नहीं कर सकते। उस स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए तो साधक, जो बाधाओं से रहित है, वह अनुभव-मित्र ही प्रसिद्ध है ॥ ५ ॥
अर्थः-अहो ! अनुभव मित्र की यह कैसी चतुराई है ? अहो ! उसकी कैसी एकनिष्ठ प्रीति है ? जो अन्तर्यामी प्रभु के समीप सच्चे मित्र की रीति निभा रहा है ।। ६ ॥
अर्थः-ऐसे अनुभव मित्र की संगति से परमात्मा से साक्षात्कार हो गया, जिससे मेरे समस्त मनोवांछित कार्य सफल हो गये। आत्म-स्वरूप को प्राप्त करने में संलग्न जो सेवक हैं वे अनुभव ज्ञान के द्वारा प्रखण्ड आनन्द रूप बनते हैं ।। ७ ॥