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श्री आनन्दघन पदावली - ६७
मुझे तनिक भी चंन नहीं पड़ता, मुझे तनिक भी अच्छा नहीं लगता । जिस प्रकार मछली जल के बिना तड़पती है, उसकी देह जलती है, उसी प्रकार हे स्वामी ! हे मेरे जीवन-धन ! आपके दर्शन के बिना मेरा जी तड़पता है और मेरी देह में अग्नि उठ रही है । विरहानल के कारण मेरी देह जल रही है । आपके दर्शन ही मेरा ताप दूर कर सकते हैं ।। १ ।।
प्राणनाथ के बिना स्त्री कंसे जी सकती है - यह बात मैं किसको कहूँ ? मैं तो समभाव में रहने वाली हूँ । मैं तो बात कहने का ढंग भी नहीं जानती । हे सखि श्रद्धा ! अब मैं सौगन्ध खाकर किसे मनाऊँ ? वे मेरे चेतन स्वामी मेरे पास कभी आते ही नहीं । मैं पहले अनेक बार सौगन्ध खाकर कह चुकी हूँ कि आपके बिना मेरा जीवन दूभर है, परन्तु मेरी बात पर उन्हें विश्वास ही नहीं होता । उन्हें तो स्वयं पर ही विश्वास होतां प्रतीत होता है ॥ २ ॥
समता की यह दशा देख कर मैत्री भावना रूपी सास, वैराग्य रूपी देवर, सरलता रूपी देवरानी और प्रमोद भावना रूपी जेठानी सब उसे समझाती हैं, परन्तु समझाने का कोई प्रभाव न देखकर क्रोधित भी होती हैं । इनका क्रोध करना निरर्थक है । ये लोग चाहे करोड़ों उपाय करें, फिर भी मेरे प्राण तो स्वामीनाथ श्रानन्दघन के बिना क्षरणभर के लिए भी नहीं रह सकते हे सखी श्रद्धा ! अब तो वियोग के दुःख की पराकाष्ठा आ गई है । श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि अपने स्वामी के दर्शन में तन्मय बनी समता सचमुच आत्मा को प्राप्त कर सकती है ।। ३ ॥
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विशेष - श्रीमद् ने यहाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात कही है । उनकी चेतना शक्ति आत्म-दर्शन के लिए अत्यन्त व्याकुल है । वे मैत्री, प्रमोद आदि भावनाओं में तन्मय रहते हैं । उन्होंने भाँति-भाँति की समस्याओं में अपनी देह सुखा डाली है । वे संसार से विरक्त हैं । रात-दिन अनेक उपाय करने पर भी उनका चैतन्यदेव से साक्षात्कार नहीं होता । पर योगिराज प्ररण करते हैं कि चाहे प्रारण रहें अथवा न रहें, मुझे निरंजनदेव से साक्षात्कार करना ही है ।
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श्रीमद् श्रानन्दघनजी योगिराज ने उपर्युक्त पद में यह महान् तत्त्व व्यक्त किया है कि - "त्याग, वैराग्य तथा मैत्री एवं प्रमोद आदि भावनाएँ आत्म-दर्शन के साधन तो हैं, परन्तु इनमें ही अटक जाने वाला व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार नहीं कर सकता।"