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________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ६६ अनुभव ज्ञानपरिणति को मोह का सम्बन्ध तनिक भी प्रिय नहीं लगता । अतः वह कहती है कि मन को प्राकर्षित करने वाले मेरे आत्मस्वामी के अतिरिक्त मुझे यह जगत् सुनसान प्रतीत होता है । मेरे श्रात्म-स्वामी मधुरभाषी हैं । वे अनुभव रूप अमृतमय वचनों के द्वारा मुझे शान्त कर देते हैं । उनके वचन शुद्ध स्वभाव प्रकट करने वाले हैं । मधुरभाषी मन-भावन ( चेतन) के बिना मेरे तन-मन को चोट लगती है, मेरे तन-मन में वेदना होती है ।। २ ।। शुद्ध प्रेम के अधिकारी आत्मस्वामी के स्वरूप में ही मेरा मन रम रहा है। अब मुझे पलंग, खाट, पछेवड़ी, शय्या तथा रेशम की सोड़ आदि उपभोग सामग्री अच्छी नहीं लगती । संसार में अन्य सभी चाहे उत्तम प्रतीत होते हों, परन्तु प्रानन्दघन चेतन ही मेरे लिए तो सिरमौर हैं । वे आनन्दघनभूत आत्म-स्वामी ही मेरे सिर के मुकुट हैं । आत्म-स्वामी के बिना मेरे लिए अन्य कुछ भी महत्त्व का नहीं है । वे आत्म-स्वामी ही मेरे लिए शरण हैं । श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि अनुभव - ज्ञान परिणति होने पर श्रात्मा की प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ उद्गार ही निकलते हैं ॥ ३ ॥ ( २३ ) (राग - कान्हरो ) दरसन प्रान जीवन मोहि दीजे । बिन दरसन मोहि कल न परत है, तलफि- तलफि तन छीजे || . दर० ।। १ ।। क्यू ं जीजे । आप पतीजे ।। दर० ।। २ ।। कहा कहूँ कछु कहत न प्रावत, बिन सइयां सोहु खाइ सखि काहु मनावो, आप ही मिल देउर देराणी सास जिठानी, युंही सबै श्रानन्दघन बिन प्रारण न रहे छिन, कोरि जतन जो खीजे । कीजे ॥ दर० ।। ३ ।। अर्थ - समता अपने आत्म-स्वामी को निवेदन कर रही है कि 'हे मेरे प्राण- जीवन ! प्राप मुझे दर्शन दीजिये । श्रापके दर्शन के बिना
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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