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श्री आनन्दघन पदावली-६५
नहीं लगता। स्वामी के विरह में मुझे घर भी श्मशान के समान चिन्तित करता है। मुझे स्नेही-जन भी प्रिय नहीं लगते। मेरे स्वामी के बिना किसी अन्य वस्तु की शोभा भी मुझे रुचिकर प्रतीत नहीं होती। अपने स्वामी के बिना मुझे दोहे एवं गाथाओं का गान भी अच्छा नहीं लगता। श्रीमद् अानन्दघन जी कहते हैं कि अानन्द के समूहभूत मेरे आत्मस्वामी प्राण-प्रिय प्रभु मेरा हाथ पकड़ लें, सम्हाल लें तो मेरी समस्त व्यथा नष्ट हो जाये और मेरे रात-दिन उत्साह एवं प्रानन्द पूर्वक व्यतीत हों और मन में अत्यन्त उल्लास बना रहे ॥३॥ __ ( २२ )
(राग-सोरठ) मोने माहरा माघविया ने मिलवानो कोड । मोने माहरा नाहलिया ने मिलवानो कोड । हुँ राखू माडी कोई बीजो मोने विलगो झोड ।। मोने० ।। १ ।। मोहनीया नाहलिया पाखे माहरे, जग सवि ऊजडजोड । मीठा बोला मनगमता नाहज विण, तन-मन थाये चोड़ ।।
मोने० ॥ २ ॥ कांई ढोलियो खाट पछेड़ी तलाई, भावे न रेसम सोड़ । अवर सबे म्हारे भला भलेरा, म्हारे प्रानन्दघन सिर मोड़ ।
मोने० ।। ३ ।। अर्थ-सम्यगमतिरूप माता को अनुभव-ज्ञान परिणति कहती है कि मुझे अपने स्वामी से मिलने की अत्यन्त चाह है। मुझे उनसे मिलने की उत्कट अभिलाषा है परन्तु मुझे कोई अन्य भूत के समान लग गया है। मोह भूत के समान है। अनुभव-ज्ञान परिणति को मोह का संग तनिक भी अच्छा नहीं लगता। अखिल संसार मोह की चेष्टाओं में फंसा हुआ है। मोह के कारण ही हमारे भीतर कुविचार उत्पन्न होते हैं। पाठान्तर से भाव है कि मैंने अपने द्वार पर लिख रखा है कि कोई भी दूसरा झंझट डालने वाला मुझसे दूर रहे अर्थात् आत्मस्वरूप के अतिरिक्त मैं अन्य बातों से दूर हूँ। अन्य समस्त बातें मुझे झंझटयुक्त प्रतीत होती हैं। अतः विभाव की बातें करने वाले मुझसे अलग रहें ॥१॥