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श्री आनन्दघन पदावली - २६१
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पाम-नाशक सम्यक् दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूपी मोक्ष-मार्ग के साधन और समिति गुप्तियों के पालन में जागरूक साधुयों के परिचय से, सत्संग "से अकल्याणकारी वृत्तियों का ज्ञान हो जाता है । उस समय आध्यात्मिक ग्रन्थों को श्रवण करने से और मनन करने से तथा तत्त्वों का नैगम आदि नयों के द्वारा भली भाँति विचार करने से प्रभु भक्ति का उद्देश्य प्राप्त हो जाता है ।। ४ ।।
उचित कारण से ही कार्य सिद्ध होता है, इसमें कोई विवाद नहीं है। बिना कारण हो कार्य की सिद्धि चाहे तो यह मूर्खता है; क्योंकि कारण के अनुरूप ही कार्य की सिद्धि होती है । जिस कार्य का जो कारण नहीं है उसे उसका कारण मानकर कार्य सिद्धि मानना मात्र मूर्खता है । जो भय, ईर्षा और शोक का त्याग किये बिना ही, आत्म-ज्ञानी मुनियों के सत्संग के बिना हीं तथा आध्यात्मिक ग्रन्थों के श्रवण, मनन के बिना ही आत्मोत्थान चाहते हैं, वे अपनी मूर्खता का परिचय देते हैं ।। ५ ।।
इस पद्यांश में योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी भक्ति मार्ग की भिक्षा माँगते हुए उसकी कठिनता प्रदर्शित करते हैं । भोले मनुष्य भक्ति को सुगम जानकर उसे स्वीकार करते हैं, उसका आदर करते हैं किन्तु सेवा का मार्ग (उपासना) बड़ा ही अगम्य और अद्वितीय है । हे सम्भव जिन ! मुझ अकिंचन को भी कभी यह सेवा प्रदान करना, यही मेरी प्रार्थना है ।। ६ ।।
( ४ )
श्री अभिनन्दन जिन स्तवन
(राग -- धन्याश्री सिंधुप्रो - श्राज निहजो रे दीसे नाहलो - ए देशी ) अभिनन्दन जिरण दरसण तरसिये, दरसण दुरलभ देव । मत मत भेदे जो जइ पूछिये, सहु थापे अहमेव ॥ अभि० ।। १ ।।
सामान्ये करि दरसण दोहिल, निरणय सकल विशेष । मद में घेर्यो हो प्राँधो किम करे, रवि ससि रूप विलेष ||
अभि० ।। २ ।।